ओशो के एक मित्र ने ओशो से कहा कि “मैं आपको अपने पिता से मिलवाना चाहता हूं क्योंकि मेरे पिता बहुत धार्मिक हैं।” ओशो ने कहा “ठीक है, मैं मिलता हूं आपके पिता से क्योंकि मुझे वैसे भी धार्मिक लोगों से मिलना पसंद है।”
ओशो जब अपने मित्र के पिता से मिले तो मित्र के पिता ने ओशो से पूछा कि “तुम किताबें बहुत पढ़ते हो, आजकल क्या पढ़ रहे हो”
ओशो ने कहा “आजकल मैं कुरान पढ़ रहा हूं”
ये सुनकर मित्र के पिता नाराज़ हो गये… कहने लगे कि तुम कैसे हिंदू हो जो क़ुरान पढ़ते हो, तुम्हें अपने धर्म की किताबें पढ़नी चाहिए।”
बाद में ओशो ने अपने मित्र से कहा कि “तुम कहते थे तुम्हारे पिता धार्मिक है मगर वो धार्मिक नहीं “सांप्रदायिक” अर्थात सामुदायिक है।”
बड़े सारे लोग आजकल आपको मिलेंगे जो स्वयं को धार्मिक कहते हैं.. मगर वो दरअसल धार्मिक होते ही नहीं हैं.. सांप्रदायिक होते हैं.. एक बड़ी बारीक लाइन है “धार्मिक” और “सांप्रदायिक” होने के बीच की.. इस का हमेशा ध्यान रखिए।
यदि आप स्वयं को धार्मिक कहलाना पसंद करते हैं तो आपको सर्वप्रथम स्व से सर्व की ओर बढ़ना होगा। अन्यथा आपका धार्मिक होना मात्र पाखंड के और कुछ भी नहीं सिद्ध होगा।
क्योंकि दुनिया के सभी धर्म एक ही सन्देश देने वाले होते है वो है मानवीयता का जिसमें चार आधार स्तम्भ विद्यमान रहते हैं;
पहला मानवीय आधार स्तम्भ;
निजी जीवन में सत्यनिष्ठ व सत्यानुशासित रहना, क्योंकि इसी एक मानवीय आधार स्तम्भ की वजह से राम, अल्लाह, गुरुनानक, जीजस, बुद्ध, महावीर व अन्य महापुरुषों का जीवन मानवता के लिए आदर्श बना।
यदि वे मानवता के इस पहले आधार स्तम्भ को अपनी जीवनचर्या में न स्वीकारते तो सायद आज उनकी कोई सार्थकता न सिद्ध होती।
विचारणीय!
क्या आप निजी जीवनचर्या में सत्यनिष्ठ व सत्यानुशाषित रहकर स्वयं का मानवीय उत्थान कर रहे हो अर्थात मनुष्य बनने की राह पर हो?
दूसरा मानवीय आधार स्तम्भ;
पारिवारिक जीवनचर्या में प्रेमनिष्ठ व प्रेमानुशासित रहना, क्योंकि इसी दूसरे मानवीय आधार स्तम्भ को स्वीकारने की वजह से ही हमारे आपके महापुरुषों ने खुद के परिवार सहित पूरी दुनिया को अपना एक परिवार के रूप में स्वीकारकर पूरी मानवता को वसुधैवकुटुंबकम् का सन्देश देने में कामयाब हुए।
विचारणीय!
क्या आप स्वयं के परिवार के लिए भी प्रेमनिष्ठ व प्रेमानुशासित हो?
तीसरा मानवीय आधार स्तम्भ;
व्यवहारिक अर्थात सामाजिक जीवनचर्या में अर्थात दूसरों के साथ न्यायनिष्ठ व न्यायानुशाषित रहना, क्योंकि मानवीय व्यवहारिक व्यवस्था में न्याय ही प्राथमिक रूप से मानवीय धर्म कहलाता है।
यदि आपके मेरे व्यवहार में न्यायधर्म की स्वीकार्यता नहीं है तो हम आप मनुष्यता की श्रेणी में नहीं आ सकते हैं।
न्याय ही वह वास्तविक धर्म है जो अबतक धरती में मानवीय व्यवहारिक मूल्यों को जीवित रखे हुए है अन्यथा मानवता कब की नष्ट हो गयी होती।
ज़ब ज़ब न्यायधर्म को मानवता के बीच से नष्ट करने का प्रयास किया गया है तब तब दुनिया के सभी प्राणियों को विनाश का दंश झेलना पड़ा है।
न्यायधर्म ही हमें आपको समाज के दूसरे अन्य लोगों के प्रति बराबरी का संतुलन बनाये रखने व जीवनोत्थान में मदद करता है।
प्रत्येक सार्वजनिक कार्य में सहभागिता के लिए प्रेरित करता है।
न्यायधर्म ही समाज को समान और उचित अवसर व संसाधन वितरित करने का आदेश देता है चाहे वो शिक्षा हो या रोजगार या फिर सार्वजनिक सेवा-सुविधा हो या फिर चिकित्सा से जुड़ा अवसर व संसाधन।
विचारणीय;
क्या आप स्वयं दूसरों के प्रति न्यायोचित व्यवहार रखते हैं?
चौथा मानवीय आधार स्तम्भ;
सभी वर्गों, समूहों, समुदायों, सम्प्रदायों, समाज के प्रति पुण्यनिष्ठ व पुण्यानुशासित रहना, क्योंकि यह आधार स्तम्भ आपको दूसरों की सेवा, मदद, जरूरतमंदों की उचित सहायता करने का अवसर प्रदान करता है व उपरोक्त तीनों आधार स्तम्भों तक क्रमशः पहुँचने का पहला मार्ग प्रसस्थ करता है।
यदि आपमें पुण्यधर्म स्वीकारने की छमता नहीं है तो आप मनुष्यत्व की पहली सीढ़ी ही नहीं चढ़ पाएंगे और न स्वयं के साथ, न ही परिवार के साथ और न ही समाज के साथ आपका आचरण व व्यवहार मानवीय सिद्ध होगा।
पुण्यधर्म ही आपको पुरुषार्थ करने हेतु प्रेरित करता है।
अकर्मन्यता से मुक्त कर कर्मफलवादी बनने की ओर अग्रसर करता है।
आपका पुण्यधर्म ही आपकी आगामी पीढ़ियों को सुरक्षित व संरक्षित करता है
विचारणीय;
क्या आप स्वयं समष्टि के लिए मानवीय पुण्यधर्म की राह पर चल रहे हैं?
सोचिए!
आत्मविश्लेषण (सेल्फ असेसमेंट) कीजिये।
यदि उपरोक्त चारों धार्मिक मानवीय आधार स्तम्भ आपकी जीवनचर्या से गायब हैं तो आप मनुष्य नहीं एक जंगली पशु/जानवर से अधिक कुछ भी नहीं।
(राम गुप्ता, स्वतंत्र पत्रकार, नोएडा)