डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
फ़नकार हो तो अपना फ़न दिखाओ न,
महज़ बातों में मुझको अब उलझाओ न।
देखो! मंज़िल आर्ज़ू अब है कर रही मेरी
मुझे बढ़ने दो, अब मुझको फुसलाओ न।
कुछ बातें हैं ज़ेह्न में, सँभाल कर, रख लो उन्हें,
सच को अब तुम , झूठी बातों से बहलाओ न।
यह बात दीगर है कि अब हम ‘हम’ न रह सके,
ऐसा हुआ क्यों, इत्मीनान से अब ख़ुद को बताओ न।
मंज़िल की जुस्तजू में अब हम हैं कारवाँ से दूर,
क्यों हो गये जुदा हम अब ख़ुद को समझाओ न।
रफ़्ता-रफ़्ता पा गया हूँ, मंज़िले मक़सूद (गन्तव्य) अपनी,
चश्मे नम (अश्रुपूर्ण आँखें) की इल्तिज़ा है ख़ुद को अब रुलाओ न।
चश्मे बेआब (निर्लज्ज) ज़माने से कोई शिकायत भी नहीं,
चश्मे पुरनम (डबडबाई हुई आँख) को अब व्यर्थ में बहाओ न।
अजल (मृत्यु) अपनी आगोश में भरपूर ले चुकी है हमें,
वफ़ाशिकन (बेवफ़ा)! फ़ना हो जाने दो, पास भी मत आओ न।
(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; २२ जून, २०१८ ईसवी)