मनीष कुमार शुक्ल ‘मन’, लखनऊ-
ज़िन्दगी इक मर्ज़ है मौत ही बस इक दवा है |
ज़िक़्र तेरा यूँ लगा हो रही जैसे दुआ है ||
मंज़िलों को छोड़कर रास्तों की ख़ाक छानी |
वो भटकता फिर रहा आज भी तो जा ब जा है ||
बादलों को ओढ़ कर चाँद भी छुपने लगा क्यूँ |
बे’वजह की बारिशें कौन अब करने लगा है ||
उम्र गुज़री जा रही है हैं बहुत सी उलझनें भी |
है मुक़द्दर साथ पर कौन जाने क्या लिखा है ||
उड़ रहा है हौसला आसमां में धूल जैसे |
उठ रहा है बार’हा बार’हा फिर गिर रहा है ||
ख़ूब पहचाना गया रहनुमा कहते जिसे सब |
सोचने में ज़िन्दगी देखने में वो हवा है ||
बा’वफ़ा वो ग़र रहा बे’वफ़ा मैं भी नहीं हूँ |
वो नहीं समझा मुझे बस यही मेरी ख़ता है ||
बस नज़र ठहरी रही छोड़ मुझको जब चला वो |
‘मन’ मुझे तू ही बता क्या मुझे आख़िर हुआ है ||