गज़ल: जिस्म में फिर तिश्नगी देखी गई

मनीष कुमार शुक्ल ‘मन’ लखनऊ –


जिस्म में फिर तिश्नगी देखी गई है |

आज उसकी दिल्लगी देखी गई है ||

एकटक ही वो मुझे है देखता बस |

रात दिन दीवानगी देखी गई है ||

आँख से दिखता नहीं जो है उसी की |

रूह में मौजूदगी देखी गई है ||

मंज़िलें मिलती नहीं उसको कभी भी |

राह में आवारगी देखी गई है ||

रौशनी दिल में कहाँ उसके रहेगी |

सोच में ही तीरगी देखी गई है ||

बज़्म में मुझको बुलाया है गया फिर |

बज़्म की बेचारगी देखी गई है ||

चुप रहा वो कुछ नहीं बोला किसी से |

आज ये नाराज़गी देखी गई है ||

ठोकरों से है कुचलता फूल को वो |

दूर से ‘मन’ ज़िंदगी देखी गई है ||