मनीष कुमार शुक्ल ‘मन’ लखनऊ –
जिस्म में फिर तिश्नगी देखी गई है |
आज उसकी दिल्लगी देखी गई है ||
एकटक ही वो मुझे है देखता बस |
रात दिन दीवानगी देखी गई है ||
आँख से दिखता नहीं जो है उसी की |
रूह में मौजूदगी देखी गई है ||
मंज़िलें मिलती नहीं उसको कभी भी |
राह में आवारगी देखी गई है ||
रौशनी दिल में कहाँ उसके रहेगी |
सोच में ही तीरगी देखी गई है ||
बज़्म में मुझको बुलाया है गया फिर |
बज़्म की बेचारगी देखी गई है ||
चुप रहा वो कुछ नहीं बोला किसी से |
आज ये नाराज़गी देखी गई है ||
ठोकरों से है कुचलता फूल को वो |
दूर से ‘मन’ ज़िंदगी देखी गई है ||