लगती हैं क्यों सबको परायी बेटियाँ

ग़ज़ल : बह्र- 2212 2212 2212

निहाल सिंह, झुञ्झनू, राजस्थान

फूलों के जैसे मुस्कराई बेटियाँ
भंवरों के जैसे गुनगुनाई बेटियाँ।

माँ, बेटी, अनुजा और तिय के रूप में
रिश्ता वो सब से ही निभाई बेटियाँ।

बेटे की चाहत में यूँ माँ-बाप ने
फिर कोख में कितनी गिरायी बेटियाँ।

वर-दक्षिणा ना मिलने पर ससुराल में
फिर जाने कितनी ही जलाई बेटियाँ।

दो कुलों की वो लाज होती हैं मगर
लगती हैं क्यों सबको परायी बेटियाँ।

क्लिष्ट शब्दार्थ — तिय- पत्नी
अनुजा- बहिन
वर- दक्षिणा- दहेज