दिवाकर दत्त त्रिपाठी-
शुष्क मरुभूमि अंतःकरण हो गया ।
दर्द का देख फिर अवतरण हो गया ।
भावना का जटायू हताहत हुआ,
प्रेम की जानकी का हरण हो गया ।
कुछ नये पंथ थे ,पर दिखे ही नही
रूढ़ियो का पुनः आवरण हो गया ।
एक भी प्रश्न मुझसे न हल हो सका,
वक्त का फिर कठिन व्याकरण हो गया।
सत्य उसको भला मान लूँ किस तरह,
जिस हृदय का पुनः अंतरण हो गया ।