ग़ज़ल- रूहों में पाक़ीज़गी ले आइए

मनीष कुमार शुक्ल ‘मन’ लखनऊ-


उसका ग़र अहसास ख़ुद में चाहिए |
रूहों में पाक़ीज़गी ले आइए ||

काशी क़ाबा हैं बसे दिल में कहीं |
दिल को लेकर रौशनी में जाइए ||

लगता है मुश्क़िल अगर जीना बहुत |
ख़ुद को मेरी ज़िन्दगी दिखलाइए ||

होती हैं कुछ मंज़िलें भी बे’वफ़ा |
फिर भी इनको बा’वफ़ा फ़रमााइए ||

साँसों की लय तक परस्तिश कर रही |
नुक्ताचीं को क्या भला समझाइए ||

जब भी रौशन चाँद से जाकर मिलो |
मिलने ‘मन’ आया समझ शरमाइए ||