ग़ज़ल : उन्हें फ़िक्र क्यों रही ?

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय –


हम रहगुज़र हैं अपने, उन्हें फ़िक्र क्यों रही,
मंज़िल बनी है अपनी, उन्हें फ़िक्र क्यों रही ?
घर-बार अपना छोड़कर, वीराने में आ गये,
रिश्तों की दुहाई की, उन्हें फ़िक्र क्यों रही ?
हर शख़्सीयत को जोड़ते, एक कारवाँ बना,
हर शख़्स को तोड़ने की, उन्हें फ़िक्र क्यों रही ?
यह बात अलग है कि अब कोई बात ही नहीं,
बातों को उम्र देने की, उन्हें फ़िक्र क्यों रही ?
सुनाकर शेर हम उनकी महफ़िल में आ गये,
मुक़र्रर-दाद पाने पर उन्हें फ़िक्र क्यों रही ?
इस बस्ती में लोग दोमुँहे-मानिंद हैं दिखते,
तजरबेकार सँपेरों से उन्हें फ़िक्र क्यों रही ?
उनकी नापाक हरकत, शर्मसार कर गयी,
अब कैसे खेलें खेल, उन्हें फ़िक्र क्यों रही ?


सम्पर्क-सूत्र : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
‘सर्जनपीठ’
११०/२, नयी बस्ती, अलोपीबाग़, इलाहाबाद; १० जनवरी, २०१८ ई०)
(यायावर भाषक-संख्या : ९९१९०२३८७०)