ग़ज़ल- यकीं का यूँ बारबां टूटना 

डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’


यकीं का यूँ बारबां टूटना आबो-हवा ख़राब है

मरसिम निभाता रहूँगा यही मिरा जवाब है ।

मुनाफ़िक़ों की भीड़ में कुछ नया न मिलेगा

ग़ैरतमन्दों में नाम गिना जाए यही ख़्वाब है ।

दफ़्तरों की खाक छानी बाज़ारों में लुटा पिटा

रिवायतों में फँसा ज़िंदगी का यही हिसाब है ।

हार कर जुदा, जीत कर भी कोई तड़पता रहा

नुमाइशी हाथों से फूट गया झूँठ का हबाब है ।

धड़कता है दिल सोच के हँस लेता हूँ कई बार 

तब्दील हो गया शहर मुर्दों में जीना अज़ाब है ।

ये लहू, ये जख़्म, ये आह, फिर चीखो-मातम

तू हुआ न मिरा पल भर इंसानियत सराब है ।

फ़िकरों की सहूलियत में आदमियत तबाह हुई 

पता हुआ ‘राहत’ जहाँ का यही लुब्बे-लुबाब है ।