—आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
● नपुंसक और पुरुषार्थविहीन हैं वे, जो बेटी बचाने की बात तो करते हैं; परन्तु उन्हीं के लोग जब बेटियों का शीलहरण करते हैं तब वे ‘शीलहरणकर्त्ताओं’ के संग खड़े होते दिखायी पड़ते हैं। ऐसे लोग शासन करने के नाम पर देश की लज्जा, शील, संकोच तथा मर्यादा के साथ नृशंस बलात्कार करते आ रहे हैं। उन्होंने घोर चतुराई का परिचय प्रस्तुत करते हुए, समाज के प्रत्येक घटक की दशा-दिशा ऐसी बना दी है कि सभी आपस मे लड़ते-कटते-मरते दिखायी पड़ रहे हैं। यही कारण है कि जनसामान्य संघटित नहीं हो पा रहा है, जिसके कारण क्रान्ति का बिगुल मौन है। अब देश के सामाजिक परिदृश्य को समझने की आवश्यकता है और बदलने की भी।
वास्तविकता यह है कि आज का औसत भारतवासी ‘रोटी’ के लिए जूझते-जूझते अपनी वास्तविक ऊर्जा का क्षरण करता आ रहा है। वह घर-परिवार की समस्याओं से इतना ग्रस्त होता जा रहा है कि उसकी कारयित्री प्रतिभा कुन्द-सी पड़ती जा रही है; उसकी विचारशक्ति और जूझने की प्रवृत्ति क्षीण होती जा रही है। हमारे देश के सत्ताधारी भी यही चाहते हैं। आज मीठी-मीठी ‘मन की बातों’ मे उलझाकर, दूर से ही वादों की लोरियाँ सुनाकर, कारनामों के अफ़ीम चटाकर, आत्मनिर्भरता की सब्ज़बाग़ दिखाकर देश की सामान्य जनता को दिग्भ्रमित किया जा रहा है।
“बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ”― यह मंचीय नारा अब प्रत्येक निम्न और मध्यम वर्ग के परिवारों के सदस्यों के गालों पर ‘चाँटा’ का काम कर रहा है। यथार्थ यह है कि आज देश की ‘एक’ भी बेटी सुरक्षित नहीं है। इसे हम प्रतिदिन देश मे महिलाओं के साथ किये जा रहे अत्याचार, अनाचार, कदाचार आदिक की घटनाओं के रूप मे देखते आ रहे हैं। ऐसे मे, प्रश्न है― हमारा-आपका दायित्व क्या बनता है? यह प्रश्नात्मक विषय विचारणीय से अधिक ‘शोचनीय’ बन चुका है।
अब समय की पुकार है और गुहार भी कि आप सभी अपनी हर बेटी को शस्त्रास्त्रविद्या मे निपुण बनाइए; उसे आत्मरक्षा की समस्त कलाओ से भरपूर कीजिए। उसके भीतर आत्मरक्षार्थ इतनी आग भर दीजिए कि देश का हर बलात्कारी, यौन-उत्पीड़क, अपहरणकर्त्ता, छेड़ख़ानी करनेवाला, हत्यारा इत्यादिक उसकी लपट का अनुभव करता रहे, फिर देखिएगा, कोई भी ‘महिला-पुरुष अपराधी’ किसी भी बेटी के साथ सहजता से आँखें मिलाने का दुस्साहस नहीं कर सकेगा; वे आँखें निकाल लेंगी। अपनी बेटियों को दबाकर मत रखिए; उन्हें समयसत्य ऐसे संस्कारों से सम्पूर्ण कीजिए कि वे ‘महादुर्गा’ और ‘महाकाली’ बनकर अत्याचारियों का महाविनाश कर सकें। उनके मन-मस्तिष्क मे संस्कार का ऐसा बीजवपन कीजिए कि वे ससम्मान आत्मरक्षा कर, समाज की चरमराई नीवँ को शक्त और सुदृढ़ कर सकें।
जय महाशक्ति।
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० अक्तूबर, २०२३ ईसवी।)