आइए! उदात्त गुरु-शिष्य परम्परा की वापसी करायें

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

कभी-कभी प्रतीत होता है, ‘आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला’ अपने उसी पुराकाल की समृद्ध और सात्त्विक परम्परा की देन है, जहाँ कभी गुरु भौतिकता से परे आत्मिक परिवेश का सर्जन करता लक्षित होता था। गुरु को न तो अपने भरण की चिन्ता रहती थी और न ही पोषण की। गुरु के शिष्याशिष्य उसके सर्वहित के प्रति सजग रहा करते थे।

आज भी इस गुरु के प्रति ‘तन-मन-धन’ से समर्पित अनेक शिष्याशिष्य हैं, जिनकी कामना रहती है कि वे अपने गुरु के लिए इतना कुछ करते रहें, जिससे उन्हे अपने कर्म पर आत्मतोष हो और अपनी गुरुभक्ति पर गर्व भी। यही उदात्त भावना और समर्पण का संस्कार गुरु को गौरवान्वित करते आ रहे हैं। यह एक संस्कारवान् शिष्याशिष्य की भावयित्री और कारयित्री प्रतिभा का सुपरिचय है।

यह गुरु स्वयं मे बहुविध समर्थ है; परन्तु गुरु के प्रति प्रकट होते शिष्या-शिष्य के श्रद्धा, समर्पण तथा विश्वास के सम्मुख पराजित-सा हो जाता है। यहीं पर यह पंक्ति अपना सार्थक आकार ग्रहण करने लगती है, “हम भक्तन के, भक्त हमारे।”

यह भावनात्मक पृष्ठभूमि उनके लिए है, जिनका नाम है, ‘लक्ष्मीराज’ जो ए० आर० पी०, बाराबंकी, उत्तरप्रदेश हैं।
लक्ष्मी जी परमप्रिय शिष्या हैं, जो निस्पृह भाव से इस गुरु के प्रति समर्पित रही हैं। उनकी अगाध श्रद्धा और विश्वास अनुकरणीय हैं। जब से उनका हमारी पाठशाला मे प्रवेश हुआ है तबसे उनकी इस विद्याश्रम के साथ सम्बद्धता अपनी शुचिता और अनुशासनप्रियता के साथ प्रगाढ़ होती जाती जा रही है। जब से उनका पाठशाला मे शिष्यत्व अङ्गीकार किया गया है तब से उनके साथ दो बार ही साक्षात्कार हुआ है।

अतिशय विनम्र और संवेदनशील लक्ष्मीराज जी मितभाषी हैं और संकोची भी।

९ फ़रवरी को लखनऊ मे आयोजित कर्मशाला मे वे आयी थीं। उन्होंने मौन रहकर गुरु के चरणद्वय का संस्पर्श किया। अपने गुरु के लिए प्रमुख शुष्क फल (काजू, बादाम तथा अखरोट), लखनऊ के पारम्परिक परिधान ‘चिकन का कुर्ता और पाजामा’ तथा ₹२,१०० रुपये भेंट किये थे।

परिवेश मन्त्रमुग्ध करनेवाला था; वाणी अवरुद्ध थी; नेत्र अपनी मूक भाषा मे पारस्परिक संवाद करते लक्षित हो रहे थे और वह लक्षणा ‘अनुभूति’ का विग्रह ग्रहण कर चुकी थी।

वानप्रस्थाश्रम मे ऐसा कुछ घटित हो तो सुखद आश्चर्य होता है। विस्मित करनेवाला दृश्य इसलिए भी कि जब ‘गुरु-शिष्य-परम्परा’ का क्षरण हो चुका हो तब भी ‘क्षीण’ ज्योति का टिमटिमाना, एक ‘महालोक’ के पथ पर ले जाता-सदृश अनुभव होता है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ११ फ़रवरी, २०२३ ईसवी।)