“ज्ञान पाने के लिए झुकना ही पड़ता है, शिष्यत्व का भाव सब कुछ देने में समर्थ है”

आप यह बात ध्यान रखना कि ईश्वरीय दिव्य ज्ञान को यदि कोई प्राप्त करना चाहता है , तो उसे शिष्य बनना ही पड़ेगा। बिना गहरे शिष्यत्व भाव के आए ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं। इस बारे में भारतीय आध्यात्मिक इतिहास में एक बड़ी रोचक एवं प्रेरक घटना है। महात्मा बुद्ध के पिता राजा शुद्धोधन ने पुत्र के ज्ञान से प्रभावित होकर उनसे कहा कि क्या मैं भी आपसे ज्ञान प्राप्त कर सकता हूँ, आपका शिष्य बन सकता हूॅ। महात्मा बुद्ध ने कहा था- हाँ! आप शिष्य अवश्य बन सकते हैं और ज्ञान भी प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन आपको एक बात का ध्यान रखना होगा कि आप शिष्य बनकर के ही आयें, पिता बनकर नहीं। आप यह याद करके मत आना कि मैं पिता हूँ और बुद्ध मेरा बेटा। आप यह धारणा बनाकर आना कि एक जलते हुए दीपक के समक्ष एक बुझा हुआ दीपक आ रहा है और वो बुझा हुआ दीपक अपने अन्दर एक नये प्रकाश को धारण करने की उत्कट इच्छा रखता है।
महात्मा बुद्ध अपने जन्मदाता पिता से बोले कि अगर आपका ऐसा मन दृढ़ता के साथ बन जाए तो आप मेरे पास अवश्य आएँ, मैं आपको शिष्य बनाकर अपने भीतर का प्रकाश दूँगा और ज्ञान प्राप्ति की आपकी इच्छा को ज़रूर पूरा करूँगा। यदि  आपको अहंकार है कि मैं पिता हूँ और ये मेरा पुत्र, तो आप ‘आ’ तो सकते हो लेकिन ‘पा’ नहीं सकते। प्राप्त करने के लिए झुकना ही पड़ेगा। अपने ‘मैं’ को हटाना ही पड़ेगा।
सदगुरु के प्रति श्रद्धा और विश्वास का भाव व्यक्ति को वह सब कुछ दे देता है, जिसे पाने के लिए वह इस धरती पर आया है। ये दो आध्यात्मिक अस्त्र न केवल लौकिक आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ हैं, बल्कि ये सद्ज्ञान की प्राप्ति के साथ-साथ ईश्वर की प्राप्ति भी करा सकते हैं।