स्वस्थ पहल-रचनात्मक संवाद

अभी-अभी ‘केंद्रीय हिंदी निदेशालय’ की सहायक निदेशक डॉ० नूतन पाण्डेय जी ने फ़ोन-माध्यम से मानक शब्दप्रयोग से सम्बन्धित वार्त्ता करने की पहल की है; उन्होँने कल भी वार्त्ता करने का प्रयास किया था; परन्तु मेरी अनुपलब्धता के कारण वार्त्ता न हो सकी थी। यह पहल एक शुभ लक्षण है; क्योँकि वैचारिक विनिमय किसी सुखद निष्पत्ति का आधार होता है।

उन्होँने बताया है, ”मानक शब्दप्रयोग से सम्बन्धित जो लघु पुस्तक सार्वजनिक की गयी है, वह अन्तिम नहीँ है। आपका सुझाव मै चाहूँगी।”

निश्चित रूप से ऐसा ही होना चाहिए। विश्वविद्यालय-स्तर का कोई भूत वा वर्तमान प्राध्यापक शब्दवेत्ता हो, ऐसा हमेशा नहीँ होता। सच कहा जाये तो हमारा भाषासौन्दर्य को विवर्ण करने मे ऐसे ही लोग की भूमिका रही है।

डॉ० नूतन जी ने कल (१ सितम्बर) ह्वाट्सऐप्प-माध्यम से एक संदेश भी सम्प्रेषित किया था :–
“नमस्कार सर, देवनागरी के नवीन संस्करण. पर विद्वानों की राय मांगी. गई है, संस्करण अभी प्रक्रियाधीन है. देवनागरी के मानकीकरण के सम्बंध में आपके बहुमूल्य सुझावों का स्वागत है, इसी नंबर पर हम बेहतर लिपि के लिए चर्चा कर सकते हैं.” 🙏🏻

मैने आज (२ सितम्बर) उन्हेँ अपनी टिप्पणी से अवगत करा दी है :–
”सारस्वत पथ पर अग्रसर रहे!

मैने आपकी मानक विवरणिका का सांगोपांग अध्ययन कर लिया है। आपको अपने विवेचनात्मक और विश्लेषणात्मक विचार से शीघ्र अवगत कराऊँगा।”
यहाँ इन दोनो संवादोँ को प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य है कि संवाद करने के लिए ‘अवकाश’ रखना चाहिए। इससे मनोमालिन्य (मन का दुर्भाव) जाता रहता है और एक स्वस्थ सर्जनात्मक परिवेश की स्वत: रचना होती है।

हमारी सुखद वार्त्ता भी रही; परन्तु अशुद्धि को मानक रूप देना कदापि स्वीकार नहीँ होगा। देखते हैँ, आगे की प्रक्रिया क्या रहती है?

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २ सितम्बर, २०२४ ईसवी।)