आइए! शब्दसंधान कर, भाषा को परिष्कृत करेँ

सम्मानित शुभेच्छुवृन्द!

यह हमारी ‘आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय की पाठशाला’ नामक प्रकाशनाधीन पुस्तक की भूमिका का आरम्भिक (अपूर्ण) अंश है। हमने इसे यहाँ इसलिए प्रस्तुत की है, जिससे आप सब बता सकेँ कि भूमिका कहीँ क्लिष्ट तो नहीँ हो गयी है।

शब्दशक्ति को धारण कर, स्वयं के अन्तस् मे एक ऐसी शक्ति के सम्पूरण का अनुभव होता है, जो देश-काल-परिस्थिति-पात्र से परे का विषय बन जाती है। शब्द करबद्ध-मुद्रा मे साग्रह अनुरोध करने की भूमिका मे संलक्षित होते रहते हैँ। सबको हमारी पाठशाला से इतनी आत्मीयता है कि प्रवेशप्राप्ति-प्रतीक्षा मे पंक्तिबद्ध होकर अविचल बने रहते हैँ। यही शब्दानुशासन इस कृति का वैशिष्ट्य है।

वस्तुत: यही शब्द-शक्ति है, जो शुचितापूर्वक शब्दसाधना के पथ मे आकर संवाद करती है। वह अनुपयुक्त, निरर्थक एवं अशुद्धिमय शब्दोँ का संजाल विच्छिन्न कर, शुचितापूर्ण एवं उपयुक्त शब्दोँ की स्थापना के प्रति सम्मति व्यक्त करती है। उसकी पीड़ा की अनुभूति एक सात्त्विक शब्दसाधक/शब्द-साधक/शब्द का साधक (‘शब्द साधक’ अशुद्ध है।) ही कर पाता है।

असत् और दुराग्रही शब्दोँ के कृष्णपक्ष से अपने विद्यार्थियोँ को विधिवत् अवगत कराकर, शुचितापूर्ण शब्दोँ को अंगीकार करने के प्रति मन-मस्तिष्क को तत्पर करने की भावना विकसित करने पर बल देना, इस व्याकरणिक कृति का उद्देश्य है।

जब इस कृति का प्रणयन कर रहा था तभी ऐसा प्रतीत हुआ, मानो यह शब्दानुशासन के क्षेत्र मे एक प्रस्तरमील सिद्ध होगा; ऐसा इसलिए कि हमने अपने लेखन-जीवन के उत्तरार्द्ध तक मे ऐसी कृति देखी नहीँ है। एक-जैसे संस्कारयुक्त शब्दोँ का अन्वेषण करना, उनकी व्युत्पत्ति, अर्थ, अवधारणा, परिभाषा, सोदाहरण व्याख्या, समानार्थी-भिन्नार्थी शब्दोँ के सामंजस्य-स्थापना, शुद्धाशुद्ध शब्दोँ का सकारण विवेचन-विश्लेषण करते हुए, शब्दार्थ-विस्तार की प्रतिष्ठा करना, इस कृति का उद्देश्य है।

हम कठोर शब्द-साधना करते हुए, कष्टमयता के साथ इस जीवन को यापन करने के लिए सिद्धहस्त हो चुके हैँ। व्यवसाय करने का संस्कार निर्जीव बना रहा है; दूसरे अपनी वणिक-बुद्धि और व्यावसायिक वृत्ति का पोषण करते रहे। यही कारण है कि वे सब हमारी पुस्तकोँ का विक्रय कर, ‘धनपशु’ बन चुके हैँ। हम अब उन सबको ललकार के साथ उनके समानान्तर अपने सारस्वत प्रतिष्ठान ‘सर्जनपीठ’ को अभिमुख कर चुके हैँ, जिसके मूल मे देश मे अध्ययन-अध्यापनरत हमारे लाखोँ विद्यार्थी हैँ; वही हमारे विज्ञापन हैँ; हमारे संकल्प को किसी विकल्प के खाँचे से परे रखकर, उसे सम्पूर्णता का रूप प्रदान करने के प्रति यथाशक्य सन्नद्ध हैँ।

वैसे भी ‘लक्ष्मी’ को ‘सरस्वती’ के परम शत्रु के रूप मे मान्यता दी गयी है। शब्द परब्रह्म है, जिसके समकक्ष कोई शक्ति भी नहीँ। ‘आचरण’ और ‘पाण्डित्य’ के सम्मुख शब्द नमित होते आये हैँ; क्योँकि उदात्त शब्दसाधक स्वाभिमानी होता है; किन्तु भौतिक स्तर पर अकिंचन दिखता है; परमुखापेक्षी नहीँ होता। समयशिला पर उसका ‘शब्दसंधान’ चिरजीवी बना रहता है।

हम अपने जीवन मे क्षणिक ‘मोहजीवी’ रहे हैँ; प्रभावस्वरूप किसी के खूँटे मे बँध नहीँ सके और न ही किसी मे सामर्थ्य रही कि अपने किसी खूँटे मे बाँध सके। सदा अपना खूँटा लेकर चलता रहा और उसे वही गाड़ता रहा, जहाँ किसी का हस्तक्षेप नहीँ रहा करता था।

इस कृति के शब्द-शब्द मे ऐसी सुगन्धि है, जो हमारे विद्यार्थियोँ के मन-प्राण को सुरभित कर, संज्ञान और सम्बोध के एक अभिनव आयाम से जोड़ती है।

(अपूर्ण)