राघवेन्द्र कुमार ”राघव”-
हर बार की तरह इस बार भी १४ सितम्बर हिन्दी की याद दिला गया । हिन्दी का विकास हो रहा है, प्रचार – प्रसार में बड़ी -बड़ी बातें कहते हुए नीति नियन्ता, सब कितना अच्छा लगता है । मन को भी यह जानकर सांत्वना मिल जाती है कि वर्ष में एक दिन तो ऐसा आता है जिस दिन हिन्दी हर दिल अजीज हो जाती है । हिंदी दिवस के मौके पर राजनैतिक गलियारों में और स्वयं सेवी संगठनों के परिसरों में बेवजह का हल्ला किया जाता है, कहते हैं कि हिन्दी को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा । भारत में सारे विभागीय काम विदेशी भाषा में होते है । ऐसे ही न जाने कितने कथित हिंदी प्रेमी आरोप – प्रत्यारोप करते हुए हिन्दी की संवैधनिक स्थिति को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं । कलुषित राजनीति को चमकाने के लिए दोषारोपण करते हुए हिन्दी को क्षेत्रीय परिसीमाओं में खदेड़ने की बाते भी आम होती है । लेकिन भाषा के नाम पर राजनीति करने वाले यह भूल जाते है कि हिन्दी किसी परिचय की मोहताज नहीं है । हिन्दी ने तो मुगलों और अंग्रेजों के राज में भी हार नहीं मानी , उत्तरोत्तर प्रगति करती गयी । कवि तुलसीदास , सूरदास , कबीर , रहीम , बिहारी और घनानंद जैसे सरस्वती साधकों ने हिन्दी को काफी मजबूती से विभिन्न रूपों में स्थापित किया है । चाहे हिन्दी , ‘अवधी’ और ‘बृज’ भाषा के रूप में रही हो या पालि , प्राकृत और अपभ्रन्श के रूप में, चाहें मगही , भोजपुरी और मैथिली के रूप में हर तरह से हिन्दी परिष्कृत हो कर आई है । पृथ्वीराजरासो , खुमाणरासो , परमालरासो , पद्मावत , अखरावट और आखरीकलाम जैसी रचनाओं ने हिन्दी को समृद्ध किया है । अंग्रेजों की प्रताड़ना के बीच मुंशी प्रेम चन्द्र जैसे व्यक्तित्व ने हिन्दी के गौरव शाली इतिहास की नींव रख उसे पुष्पित और पल्लवित किया । जिसे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र , जयशंकरप्रसाद , मैथिलीशरण गुप्त , महावीरप्रसाद द्विवेदी , महादेवी वर्मा , निर्मल वर्मा आदि साहित्यकारों व इनके समकालीनों ने हिन्दी को नई बुलंदी पर पहुँचाया । भारत के आजाद होने के पश्चात १९५२ में हिन्दी भाषी संख्या के आधार पर विश्व में ५ वें स्थान पर थे । ८० के दशक में हिन्दी , चीनी और अंग्रेजी के बाद भाषियों की संख्या के आधार पर तीसरे पायदान पर थी । समय के साथ धीरे – धीरे २१ वीं सदी के पहले दशक में ही हिन्दी बोलने वालों की संख्या के आधार पर चीनी के बाद दूसरे क्रम पर आ गयी है । समालोचक इस जगह एक बात कहते हैं कि ‘ज्यादा लोगों द्वारा बोलने वाली भाषा’ हिन्दी इसलिए बन गयी है क्योंकि भारत की आबादी अधिक है । ठीक है मान लिया उनका कहना सही है लेकिन भाषा का प्रसार तो मात्रभूमि से होता है । आज जब हम वैश्वीकरण के युग में हैं तो एक दूसरे की संस्कृति और भाषा से परिचित हो रहे है । भारत को यह मौका काफी देर से मिला । जब सारे देश विज्ञान और विकास की कहानी गढ़ रहे थे, भारत गुलामी की जंजीरों में ज़कड़ा हुआ था । किन्तु आजादी के बाद विशाल आबादी को सँभालते हुए विकास करना प्रायः दुष्कर कार्य था , वो भी तब जब लोकतान्त्रिक व्यवस्था हो । लेकिन भारत बड़ी सूझ – बूझ से काम लेते हुए यहाँ तक आ पहुंचा है, जहाँ उसे विश्व की बड़ी और प्रभावी अर्थ व्यवस्था कहा जा रहा है । इस सफलता के पीछे भारत को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा हिन्दी का अहम योगदान रहा है ।
जो लोग कहते है कि भारत में आधिकारिक रूप से हिन्दी की जगह अंग्रेजी का वर्चस्व है वह कभी यह ध्यान नहीं देते कि उनके बच्चे भी हिन्दी छोड़ कुछ और ही पढ़ रहे हैं । कहते हैं बड़े दफ्तरों से लेकर न्यायालय तक अंग्रेजी का ही बोलबाला है , ऐसे में इसके पीछे का मनोविज्ञान जान लेना जरुरी है । अंग्रेजी सर्वमान्य वैश्विक भाषा है । वैश्विक विकास और वैश्विक संबंधों को अंग्रेजी ही आगे बढ़ा सकती है । ऐसे में अंग्रेजी को दोष देना उचित नहीं है । हाँ भारतीयों का अँग्रेज़ बनना ज़रूर हिन्दी को प्रभावित कर रहा है । उच्च आर्थिक स्तर का व्यक्ति हिन्दी बोलने में हीनता का अनुभव करता है तो आधुनिक युग का मध्यम वर्ग भी उसकी नकल का प्रयास करता है । फिर भी हिन्दी कहीं से कमजोर नहीं हुई है वरन् कई सोपान आगे बढ़ी है । शासन – प्रशासन को दोष देना आसान है लेकिन अपने गिरेबान में झांकने की हिम्मत नहीं है । हम बच्चों को अंग्रेजी शिक्षा ही दिलाना चाहते है । हिन्दी को अगर हम घर में ही दुत्कारेंगे तो स्वाभाविक ही उसका ह्रास ही होगा । यहाँ तक कि नयी पीढ़ी खाना , पीना , उठना , बैठना और तो और दैनिक कार्य भी अंग्रेजी में करने लगी है । ऐसे में हिन्दी को ज़रूर ठेस लगती है । हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है , इससे भी कोई फर्क नही पड़ता । उसे फ़र्क तब पड़ता है, जब कोई क्षेत्रीय भाषा कहकर इसे अपमानित करता है । जब सवा सौ करोड़ लोगों में हिन्दी बोलने वालों की संख्या महज़ ४० फीसदी हो । जब हिन्दी की रोटी अंग्रेज़ी की आग पर पकती है, तब हिन्दी को कष्ट होता है । अरे हिन्दी ने तो अपने बेटों से यहाँ तक कह दिया कि उर्दू और अंग्रेज़ी तुम्हारी मौसियाँ हैं । सारी भाषाएँ तुम्हारी पूज्य हैं । लेकिन आधुनिक भारतीयों के समझ में अब रिश्तों की अहमियत कम हो गयी है ।
आज विश्व भर में ५० करोड़ से ज्यादा लोग हिन्दी बोलते हैं, १०० करोड़ से ज्यादा हिन्दी समझते हैं । यूरोप में लगभग २५ हिन्दी पत्र – पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है । अमेरिका के लोग बड़ी संख्या में हिन्दी सीख रहें हैं । ऐसे में हमें खुशी होनी चाहिए कि भारतीय भाषा वैश्विक हो रही है । लेकिन हम हिन्दी को लेकर गंभीर नहीं हैं । आरोपों और प्रत्यारोपों की जगह सभी मिलकर हिन्दी को थोड़ी भी गम्भीरता से लें तो हिंदी विश्व की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा के साथ ही सुदृढ़ वैश्विक भाषा भी बन सकती है । वैज्ञानिकों के अनुसार हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है । हिन्दी भावों की भाषा है । ऐसे में हिन्दी की स्वीकार्यता में तनिक भी संदेह नहीं है । बस आवश्यकता है हिन्दी को गर्व से अपनी पहचान के रूप में स्थापित करने की । यह हो पाएगा कि नहीं इसमें क्षेत्रीय परिदृश्य को देखते हुए समस्याएँ नज़र आती हैं ।