
शरद की ठिठुरन और ग्रीष्म की तपन– ये दोनो अन्तर्विरोधी हैँ। इन दिनो ग्रीष्म-तपन की ही परिचर्चा है। जन-जन ग्रीष्म के कोप से आकुल-व्याकुल है तो दूसरी ओर, सूर्य महाराज जड़-चेतन की धैर्य-परीक्षा कर रहे हैँ। वैसी स्थिति मे साहित्यकार-मन सहज सर्जन करने मे समर्थ नहीँ जान पड़ता, कारण कि ग्रीष्म का आतंक उसके मन-मस्तिष्क पर छाया रहता है।
कल (१७ जून) इसी विषय पर ‘सर्जनपीठ’, प्रयागराज की ओर से एक राष्ट्रीय आन्तर्जालिक बौद्धिक परिसंवाद का आयोजन किया गया, जिसका विषय था– ‘ग्रीष्म की तपन और साहित्यकार-मन”।
आयोजक और भाषाविज्ञानी आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने विषय-प्रवर्तन करते हुए कहा, “तपती दुपहरी और लम्बे होते दिन मे बढ़ता तापमान हमारी परीक्षा करता दिख रहा है। हमारी रचना का केन्द्र ‘भावना’ और ‘कल्पना’ शुष्क पड़ जाती है; क्योँकि जो संवेदनाप्रधान होता है, वही सर्वाधिक प्रभावित होता है। जून से अगस्त तक की वह अवधि उत्तरी गोलार्द्ध मे अति तपन का अनुभव कराती है।” आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय ने महाकवि बिहारी के उस दोहे का भी पाठ किया, जिसमे जेठ की भीषण दुपहरी से प्रभावित होकर नायिका अपने नायक से कह रही है :– देखो न, जेठ के महीने मे इतनी गरमी है कि छाया भी ‘छाया’ चाह रही है। “बैठि रही अति सघन बन, पैठि सदन-तन माँह।
देखि दुपहरी जेठ की, छाहौँ चाहति छाँह॥”
इसी अवसर पर आचार्य ने अपना एक प्रासंगिक दोहा प्रस्तुत किया था :–
“जेठ दुपहरी जल रही, जला रही हर देह।
जड़-चेतन निरुपाय बन, आस लगाये मेह॥”
आचार्य ने प्रेमचन्द की कृति ‘गोदान’ मे जिस जेठ की दुपहरी का चित्रण किया गया है, उसका एक अंश प्रस्तुत किया, “होरी खेत मे काम कर रहा था। जेठ की दुपहरी का समय था। सूरज आग बरसा रहा था। हवा गरम और सूखी थी। हर पत्ता, हर घास का तिनका झुलस रहा था। होरी का शरीर पसीने से तरबतर था, लेकिन उसकी मेहनत जारी थी।”
थाणे (महाराष्ट्र) से कवयित्री रत्ना साठे ने कहा, “जनसामान्य तपती धरती और जीवन के मुश्किलात को महसूस कर पाते हैँ। जेठ की दुपहरी मे तपी भूमि और झुलसती हवा का वर्णन साहित्यिक रचनाओँ मे बार-बार मिलता है। कई बार साहित्य मे गरमी उदासीनता, संघर्ष और प्रकृति की तीव्रता को निरूपित करती है तो इस गरमी मे युवा-जोश, अल्हड़पन और प्रेम भी नज़र आता है।”
रायपुर (छत्तीसगढ़) से प्रदीप शाकल्ये ने कहा, “ग्रीष्म की तपन साहित्यकारोँ के दिलो दिमाग़ को बेपटरी कर देती है। कुछ भी लिखने की इच्छा नहीँ होती; मन भीतर से एक दबाव को जी रहा होता है, जिसमे गरमी की भयावहता दिखती है, जो भीतर तक झुलसाती रहती है। उसी मे कुछ कवि स्वयं को उस संकट-संत्रास मे रखते हुए, ग्रीष्म की तपन की अनुभूति अपने पाठकवर्ग को कराते रहते हैँ।”
अन्त मे आयोजक ने सहभागियोँ के प्रति अपना कृतज्ञता-ज्ञापन किया।