
● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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एक कथा है, जिसके आधार पर तीर्थराजप्रयाग को तीर्थोँ मे शीर्ष स्थान दिया गया है। वह कथा इसप्रकार है :–
एक बार की बात है। ब्रह्मा ने सोचा कि पृथ्वीलोक मे जिधर देखो उधर ही तीर्थ हैँ। हमे इन तीर्थोँ की गुणवत्ता का परीक्षण करना होगा। इसके लिए ब्रह्मा ने समस्त तीर्थोँ, सप्त समुद्र तथा सप्त महाद्वीप को तराजू के एक पलड़े पर रखा तथा दूसरे पलड़े पर प्रयागराज को रखा। इसका परिणाम हुआ कि जिस पलड़े पर प्रयागराज को रखा गया था, वह ऐसे नीचे आ गया, मानो धरती से चिपक गया हो। प्रयागराजवाले पलड़े के नीचे आते ही दूसरा पलड़ा इतना ऊपर उठ गया, मानो ध्रुवमण्डल को छूने लगा हो। इस पौराणिक कथा के माध्यम से तीर्थराजप्रयाग के महत् गौरव और श्रेष्ठता को सिद्ध किया गया है। प्रयागराज के महिमामण्डन को लेकर ऐसी मान्यता है कि जिसप्रकार ब्रह्माण्ड से जगत् की उत्पत्ति होती है, जगत् से ब्रह्माण्ड की नहीँ, उसीप्रकार समस्त तीर्थोँ का उद्गम प्रयागराज से हुआ है, जबकि प्रयागराज स्वयंभू हैँ।
कथा-शृंखला की एक अन्य कड़ी है, जो इसप्रकार है :–
जब प्रयागराज को ‘तीर्थराज’ के रूप मे सर्वसम्मति से मान्यता प्राप्त हुई थी तब काशी-विश्वनाथ ने प्रयागराज मे प्रवास करने का मन बनाया और वहाँ जाकर रहने लगे। वहाँ उन्होँने वेणीमाधव के दर्शन भी किये थे। ‘पद्मपुराण’ मे बताया गया है कि शिव को वेणीमाधव अत्यन्त प्रिय हैँ।
तीर्थराजप्रयाग वही पावन तीर्थस्थल है, जिसका ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रथम यज्ञ के लिए चुनाव किया था और उन्होँने वहीँ रहकर ‘दशाश्वमेध यज्ञ’ सम्पादित किया था। बताया जाता है कि जहाँ ब्रह्मा ने यज्ञ-अनुष्ठान सम्पन्न किया था, उसका नाम ‘दशाश्वमेध घाट’ रखा गया है। माघ-मास मे समस्त देवी-देव संगम मे स्नान करने के लिए लालायित रहते हैँ, जिसके लिए वे सब सूक्ष्म रूप मे यमुना-तट पर निर्मित अकबर-क़िला के परिसर मे स्थित अक्षयवट पर वास करते हैँ और ब्रह्ममुहूर्त्त के प्रारम्भ होते ही, त्रिवेणी-संगम मे जलावगाहन कर, अपने गन्तव्य के लिए लौटते हैँ।
वास्तव मे, तीर्थराजप्रयाग भारत का प्राण है। वहाँ कई शताब्दी से माघमेला (प्रतिवर्ष), अर्द्धकुम्भ (प्रति छ: वर्ष) तथा कुम्भ (प्रति बारह वर्ष) का आयोजन होता आया है। वहाँ कर्म, भक्ति एवं ज्ञान की त्रिवेणी प्रवहमान (‘प्रवाहमान’ अशुद्ध है।) है। यहाँ इला, पिंगला एवं सुषुम्ना अपनी आत्मिक संगम के वैशिष्ट्य का उद्घाटन करती प्रतीत हो रही हैँ। यह वही प्रयागराज है, जहाँ अरण्य और नदी-संस्कृति को उत्तुंग शिखर पर समासीन करते हुए, त्रिदेव यथाशक्य अपना प्रभाव छोड़ते आ रहे हैँ। यही कारण है कि हमारे पुराण यह कहने के लिए विवश हैँ कि त्रिवेणी-संगम का स्थान ब्रह्म और विष्णुलोक के समकक्ष है। उक्त त्रिदेव के पुण्यस्थल तीर्थराजप्रयाग को पुराणो मे ‘विष्णुप्रजापति’ और ‘हरिहर-क्षेत्र’ के नाम से मान्यता दी गयी है। तीर्थराजप्रयाग को जिस उपमा-सौन्दर्य से मण्डित किया जाता है, उसका एक दृष्टान्त देखेँ :–
“ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणां यथा शशि।
तीर्थानामुत्तमं तीर्थं प्रयागाख्यमनुत्ततमम्।।
(जिसप्रकार ग्रहोँ मे सूर्य और चन्द्रमा श्रेष्ठ होता है उसीप्रकार तीर्थोँ मे प्रयागराज सर्वोत्तम तीर्थ है।)
यह वही तीर्थराज प्रयाग है, जहाँ अष्टनायक हैँ, जिसका अन्तिम और प्रमुख नायक तीर्थराजप्रयाग हैँ। वहाँ भगवान् विष्णु, अर्थात् माधव के बारह रूप हैँ, जिसे ‘द्वादश माधव’ कहा गया है। सर्वाधिक महत्त्व का विषय है कि प्रयाग मे त्रिवेणी-संगम (गंगा, यमुना एवं अदृश्य सरस्वती) है। तीर्थराजप्रयाग को अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्षप्रदाता भी कहा जाता है।
पौराणिक ग्रन्थोँ :– स्कन्दपुराण, पद्मपुराण, अग्निपुराण, शिवपुराण, ब्रह्मपुराण, वामनपुराण, बृहन्नारदीय पुराण, मनुस्मृति, वाल्मीकीय रामायण, श्री रामचरितमानस, महाभारत, रघुवंशम्, अष्टाध्यायी इत्यादिक मे जिस प्राथमिकता के साथ प्रयागराज की सत्ता-महत्ता का वर्णन किया गया है, उतना अन्य किसी तीर्थस्थल का नहीँ। कहा जाता है कि तीर्थराजप्रयाग सप्त पुरी के स्वामी हैँ, जो इसप्रकार हैँ :–
“अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।
पूरिवती चैव सप्तैता: मोक्षदायिका:।।”
[अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार (माया), काशी (वाराणसी), कांची (कांचीपुरम्), अवन्तिका, द्वारकाधाम/द्वारकापुरी (गुजरात)– ये सातोँ पुरियाँ मोक्षदात्री हैँ। ] वे सातोँ पुरियाँ तीर्थराजप्रयाग की रानियाँ मानी गयी हैँ, जिसमे काशी को पटरानी का स्थान प्राप्त है; क्योँकि उन्हेँ काशी सर्वाधिक प्रिय है। यही कारण है कि तीर्थराजप्रयाग ने उन्हेँ मुक्तिदात्री के रूप मे असीमित अधिकार दिया है। कहा भी गया है, “मुक्तिदाने नियुक्ता।” वे मुक्ति देने के लिए नियुक्त की गयी हैँ।
इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि तीर्थराजप्रयाग की कितनी महत्ता है।
यदि कोई तीर्थराजप्रयाग की श्रेष्ठता का प्रमाण चाहता हो तो उसे इस ‘प्रयागाष्टम्’ मे वर्णित इस श्लोक से सारतत्त्व ग्रहण कर लेना चाहिए :–
“श्रुति: प्रमाणं स्मृतय: प्रमाणं पुराणमप्यत्र परं प्रमाणम्।
यत्रास्ति गङ्गा यमुना प्रमाणं स तीर्थराजो जयति प्रयाग:।।”
(श्रुति प्रमाण है; स्मृति प्रमाण है; यहाँ पुराण भी परम प्रमाण है। जहाँ गंगा-यमुना प्रमाण हैँ, उस तीर्थराजप्रयाग की जय हो।)
‘ब्रह्मपुराण’ ने प्रयागराज को समस्त तीर्थोँ मे उत्कृष्ट कहा है :–
”प्रकृष्टत्वात्प्रयागोSसौ प्राध्यान्यात् राजशब्दवान्।”
‘पद्मपुराण’ के ‘स्वर्गखण्ड’ मे कहा गया है कि तीर्थराजप्रयाग के अन्तर्गत बीस करोड़ दस सहस्र तीर्थ हैँ।
यह श्लोक तो तीर्थराज की अनन्त महिमा का गुणगान कर रहा है :–
“तीर्थावली यस्य तु कण्ठभागे दानावली वल्गति पादमूले।
व्रतावली दक्षिणपादमूले,
स तीर्थराजो जयति प्रयाग:।।”
भला गोस्वामी तुलसीदास पीछे कैसे रहेँगे; वे तीर्थराजप्रयाग की स्तुति मे अपनी कृति ‘श्री रामचरितमानस’ के माध्यम से कई चौपाइयोँ का सर्जन करते हैँ। वे रचते हैँ :–
“अस तीरथपति देख सुहावा। सुखसागर रघुबर सुखु पावा।।”
वे यह भी बताते हैँ कि अपने प्रयाग-आगमन पर रामचन्द्र प्रात:काल की समस्त क्रियाओँ से मुक्त होकर तीर्थोँ के राजा प्रयाग का दर्शन करते हैँ :–
“प्रात प्रातकृत करि रघुराई। तीरथराजु दीख प्रभु जाई।।”
तुलसी बाबा प्रयाग का मनोरम वर्णन करते हुए कहते हैँ कि त्रिवेणी-संगम ही तीर्थराजप्रयाग का अत्यन्त सुशोभित आसन है। अक्षयवट क्षेत्र है, जो मुनियोँ के मन को भी मुग्ध कर लेता है। यमुना और गंगा की तरंगेँ उसके चँवर हैँ, जिनको देखकर ही दु:ख-दारिद्र्य नष्ट हो जाता है :–
“संगम सिंहासनु सुठि सोहा। छत्र अखयबटु मुनि मन मोहा।।
चँवर जमुन अरु गंग तरंगा। देखि होहिं दुख दारिद भंगा।।”
सम्पर्क-सूत्र :–
‘सारस्वत सदन’
२३५/११०/२-बी, आलोपीबाग़, प्रयागराज– २११ ०००६
९९१९०२३८७०
prithwinathpandey@gmail.com