जितना भी धिक्कारा जाये, कम है

भगदड़ मे मरनेवाले भी कम दोषी नहीं

★ आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

वर्ष २०२१ को पुरातन की गोद मे बैठाकर नूतन वर्ष २०२२ इधर अपना आसन ग्रहण करता है उधर कोविड-कोरोना को नज़र-अन्दाज़ करते हुए, वैष्णव देवी (जम्मू-कश्मीर) के अन्धभक्तों ने नियम को तार-तार करते हुए, हज़ारों की भीड़ मे ख़ुद को शामिल कर लेते हैं। एक भेड़ के पीछे हज़ारों भेड़ें बिना सोचे और विचार किये वैष्णवी देवी की ओर सरकने लगीं। उस भीड़ की असभ्यता से अनुमान हो चुका था कि यदि कोई हादिस:/हादिसा (‘हादसा’ अशुद्ध शब्द है।) होता हो तो मौत से बचने के लिए कोई विकल्प नहीं दिखेगा। हुआ भी यही :– इधर भगदड़ मची उधर सब जान बचाने के लिए जिधर राह देखे, बदहवास भागने लगे; एक-दूसरे पर गिरते-पड़ते जान हथेली पर लिये भागते रहे। दृश्य भयावह रहा; विलम्ब रात्रि के साढ़े बारह और एक के मध्य वह सब कुछ घट चुका था, जिसकी आशंका को घटना से पूर्व प्रत्येक यात्री अपनी अन्धश्रद्धा की गठरी मे बाँधे लिये जा रहा था। उन अन्धभक्तों को दिख नहीं रहा था– वे सभी सटे-सटे, एक-दूसरे को ठेलते हुए, रेल्लमपेल मचाते हुए, देवी-देवता से अपने कुकर्मो की भारी गठरी को हलका कराने के लिए; अकर्मण्य रहते हुए सारा सुख अपने पक्ष मे कराने की मंशा लिये हुए, कोरोना-नियम के परखच्चे उड़ाते हुए, भक्तिभाव प्रदर्शित कर रहे थे?

अब रोना-चीख़ना और श्रद्धांजलि का भाव प्रकट करने का औचित्य क्या है? क्या ‘न्यू इण्डिया की मोदी-सरकार’ और भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमन्त्री और हिन्दू-पुरोधा नरेन्द्र मोदी और उनके अनुयायियों को इतनी अधिक संख्या मे कथित भक्तों के पहुँचने की ख़बर नहीं थी? क्या जम्मू-कश्मीर का शासन-प्रशासन अन्धा, लूला, लँगड़ा, बहरा, गूँगा था? कोविड-संक्रमण और कोरोना-प्रभाव की व्याप्ति को देखते-समझते हुए, वैष्णव देवी का कपाट क्यों खोला गया था?

सच तो यह है कि देश के पढ़े-लिखे अधिकतर स्त्री-पुरुष ‘हिन्दू-धर्म’ के नाम पर इतने अन्धभक्त हो चुके हैं कि जाने-अनजाने मौत को गले लगाने से भी नहीं चूक रहे।

कथित हिन्दू-प्रधान राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा करता आ रहा है। लोग मरें, जलें, कटें तथा आग लगे, उससे कथित राजनीतिक दल को कुछ भी लेना-देना नहीं है। कथित हिन्दूधर्म तो यह भी कहता है– जो ‘भतार’ (भर्तार) वास्तविक जीवन मे जिन महिलाओं के साथ रहता है, कथित हिन्दू-धर्म के अनुसार माग की सीधी रेखा मे जितनी दूर तक सिन्दूर भरी जायेगी, उसका ‘भतार’ उतनी ही अधिक आयुवाला होगा; परन्तु वैसी ही महिलाएँ रक्तवर्णीय गोला टीका, लम्बी रेखा, चौड़ी रेखा लगाकर अपने भीतर के खोखले हिन्दुत्व को जगाती रहती हैं। ऐसी महिलाओं मे अधिकतर मनस्तर पर रुग्ण रहती हैं; बेरोज़गार रहती हैं; उनमे से अधिकतर शायद नियमित रूप से गाय को भोजन कराती हों; गोबर पाथकर उससे ‘गोइंठा’ (कण्डी) अर्जित करती हों और उसे जलाकर धार्मिक अनुष्ठान करती हों तथा उन्हें कथित हिन्दूधर्म से सम्बन्धित कर्मकाण्डीय संज्ञान हो। आश्चर्य होता है, पढ़ी-लिखी महिलाएँ अपने हिन्दू-धर्म के प्रति भर्त्सना के स्तर पर नितान्त संकीर्ण हैं। वे युवतियाँ, जिन्हें दो वक़्त की रोटी-दाल मयस्सर नहीं, उनमे से अधिकतर विवाहोचित अवस्था पारकर, मंगलसूत्र से वंचित रहीं और ‘हिन्दू-हिन्दुत्व’ की एक सौ आठ’ माला धारण कर सती- साध्वी बनकर, व्यावहारिक धरातल पर अशिक्षित सुशिक्षित-सुशिक्षिताओं को’हिन्दू-धर्म’ की अफ़ीम चटाती आ रही हैं।

बेशक, बाह्याडम्बर किसी भी धर्म की अस्लीयत को सामने लाता है। आज यही हो रहा है। अभी तो यह शुरुआतभर है। धर्म अफ़ीम तो है ही; उसी का परिणाम है कि संकीर्ण लोग ‘धर्म’ के नाम पर सरे आम चौराहे पर चड्ढी उतारकर नंगा नाच करने से भी परहेज नहीं कर रहे। इसी ‘हिन्दू-धर्म’ के नाम पर देश के बेहद घटिया क़िस्म के राजनेता देश को पतन की राह पर ठेल चुके हैं।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १ जनवरी, २०२२ ईसवी।)