जयन्ती पर प्रो. आर्थर लेवेलिन बाशम का पुण्य स्मरण

डॉ॰ निर्मल पाण्डेय (इतिहासवेत्ता)

डॉ• निर्मल पाण्डेय

‘मैं हिन्दुओं के ज्ञान के बारे में बात नहीं करूँगा… ना ही ग्रीक और बेबीलोन वासियों से ज्यादा बढ़िया ज्योतिष विज्ञान के क्षेत्र में किये गए उनके कुशाग्र अन्वेषणों के बारे में, गणित की तार्किक व्यस्था का, या फिर गणना करने के तरीकों का, मेरा मतलब है – इसके लिए नौ चिन्हों के प्रतीकों का इस्तेमाल जबर्दस्त प्रशंसा का पात्र है। यदि कोई यह सोचे कि वह विज्ञान के क्षेत्र का उस्ताद है केवल इसलिए कि वह ग्रीक बोलता है, तो देर सबेर उसे यह भान हो जाएगा कि ग्रीक से इतर जबान बोलने वाला भी उतना ही जानता है जितना कि वो…’

आज ही के दिन लगभग सौ साल पहले 24 मई 1914 को इंग्लैंड में पैदा व पले-बढ़े आर्थर लेवेलिन बाशम 662 ईस्वी में लिखे गए सीरियन ज्योतिष और भिक्षु सेवेरस सेबोकीट के उपरोक्त एक कथन के जरिए प्राचीन भारत की संस्कृति पर लिखी अपनी कालजयी रचना ‘द वंडर दैट वाज इंडिया – ए सर्वे ऑफ़ कल्चर ऑफ़ इंडियन सब-कॉन्टिनेंट बिफोर द कमिंग ऑफ़ द मुस्लिम्स’ की शुरुआत करते हैं । दरअसल इस तरह की निष्पक्ष दृष्टि द्वारा प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर किये गए कार्यों ने आज भी प्रो. बाशम को, उनलोगों के लिए, जिनकी थोड़ी सी भी रूचि भारत, भारतीय संस्कृति और सभ्यता में है, के लिए प्रासंगिक बना रखा है।

1947 के बाद तीन राष्ट्रों की शक्ल में अवतरित हुए देशों भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका की सभ्यता और संस्कृति को शामिल करता यह ग्रन्थ भौगोलिक भारत या यूँ कहे भारतीय उपमहाद्वीप की सभ्यता के आविर्भाव और विकासक्रम का प्रतिबिम्बन है, जो प्रागैतिहासिक काल से शुरू हो मुसलमानों के आगमन के पूर्व तक यहाँ फली-फूलीं। बाशम ने संस्कृत, पाली और प्राकृत के उप-भाषीय और स्थानीय शब्दों का अनुवाद इस प्रकार किया है कि वो उच्चारण और अर्थों की अपनी मौलिकता को छोड़े बिना मूर्त, प्रभावशाली और प्रवाहमान बनी रहें। भारतीयों द्वारा विश्व को दिए गए सांस्कृतिक अवदान की चर्चा करते हुए बाशम ने इस कृति में दिखाया है की कैसे संपूर्ण दक्षिण-पूर्व एशिया को अपनी अधिकाँश संस्कृति भारत से प्राप्त हुयी, जिसका प्रतिबिम्बन जावा के बोरोबुदूर के बौद्ध स्तूप और कम्बोडिया में अंगकोरवाट के शैव मंदिर में परिलक्षित होता है ।

वृहत्तर भारत के रूप में चर्चा करते हुए कुछ भारतीय राष्ट्रवादी इतिहासकार इस क्षेत्र में बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के लक्षणों का सांस्कृतिक विस्तार पाते हैं। यद्यपि दक्षिण-पूर्व एशिया की भांति चीन ने भारतीय विचारों को उनकी संस्कृति के प्रत्येक रूप में आत्मसात नहीं किया, फिर भी सम्पूर्ण सुदूर-पूर्व बौद्ध धर्म के लिए भारत का ऋणी है, जिसने चीन, कोरिया, जापान और तिब्बत की विशिष्ट सभ्यताओं के निर्माण में सहायता प्रदान की। भारत ने बौद्ध धर्म के रूप में एशिया को विशेष उपहार देने के अलावा सारे संसार को जिन व्यवहारात्मक अवदानो द्वारा अभिसिंचित किया हैं, बाशम उन्हें, ‘चावल, कपास, गन्ना, कुछ मसालों, कुक्कुट पालन, शतरंज का खेल और सबसे महत्वपूर्ण- संख्या सम्बन्धी अंक-विद्या की दशमलव प्रणाली’ के रूप में चिन्हित करते हैं। दर्शन के क्षेत्र में प्राचीन बहसों में पड़े बिना बाशम ने पिछली दो शताब्दी में यूरोप और अमेरिका पर भारतीय आध्यात्म, धर्म-दर्शन और अहिंसा की नीति के प्रभाव को स्पष्टतया दर्शाया है। ‘द वंडर दैट वाज इंडिया’ (1954)’ के बारे में केनेथ बैलाचेट कहते हैं कि, ‘यह पुस्तक भारतीय संस्कृति को सजीव और अनुप्राणित करने वाली प्रशंसनीय बौद्धिक और उदार प्रवृत्ति के विशेष गुणों से लैस, ‘संश्लेषण का एक मास्टरपीस’ है।’ ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र होकर भारतीय महाद्वीप में भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका के रूप में तीन नए राष्ट्र राज्यों के उद्भव के तुरंत बाद आई यह पुस्तक सहानुभूति, समन्वय और परस्पर समभाव के मूलभाव से अनुप्राणित औपनिवेशिकोत्तर काल की पांडित्यपूर्ण कृति साबित हुयी।

प्राच्य-विद्या की नवीन शैली, संश्लेषण और शिक्षाशास्त्रीय ढंग से लबरेज औपनिवेशिक ढर्रों को दरकिनार करती हुयी बहुतेरी रचनाएँ देने वाले बाशम ने द्वितीय-विश्वोत्तर काल में भारतीय उपमहाद्वीपीय सभ्यता और संस्कृति को प्रस्तुत करने का जो गौरवशाली, प्रतिष्ठापरक और स्वावलंबी तरीका प्रदान किया, वह नव-स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आये देशों के मौलिक और देशज विकास के लिए आवश्यक था।