केन्द्रीय कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा के लिए भारी भरकम धन मुहैया कराया जाना आखिर कहां तक उचित

 विजय कुमार-


केन्द्र सरकार ने सातवें वेतन आयोग की संस्तुतियों के अनुसार केन्द्रीय कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा हेतु शिक्षा भत्ता 2250 रुपये प्रतिमाह एवं उनके हास्टेल खर्च हेतु 6750 रुपये प्रतिमाह यानि कुल 9000 रुपये प्रतिमाह देने के आदेश जारी किए और यह 28 मार्च 2014 से प्रभावी माना जाएगा। इतना ही नहीं हर बार 50 प्रतिशत वेतन वृद्धि पर इसमें 25 प्रतिशत की वृद्धि स्वतः हो जाया करेगी। यानि मोदी जी भी मानते हैं कि सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को प्राइवेट स्कूलों की ही जरूरत है ताकि उन्हे अच्छी शिक्षा मिलने में कोई आर्थिक समस्या या बाधा न आए। अब सवाल यह उठता है कि आखिर गरीबों के बच्चों के लिए क्या? क्या वही निष्प्रयोज्य सरकारी स्कूल? जहाँ की बेहद घटिया व्यवस्था किसी से छिपी नहीं? एकतरफ तो सरकारें फरमान जारी करती हैं कि सभी सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों मे पढ़ेंगे और दूसरी तरफ उनके लिए इस प्रकार वेतन से अलग उनके बच्चों की शिक्षा के लिए ऐसे भारी भरकम धन का मुहैया कराया जाना आखिर क्या कहानी कह रहा है? अरे ये जी.ओ. तो तुष्टीकरण है सरकारी कर्मचारियों का और वह जी.ओ. भी तुष्टीकरण है गरीब जनता का कि सरकार तो असमानता हटाने हेतु पूर्ण प्रयासरत है साथ ही सरकार के प्रयासों से अब सभी सरकारी अधिकारियोंऔर कर्मचारियों के बच्चे सरकारी स्कूलो में पढ़ेंगे तो निश्चित ही वहाँ की व्यवस्था सुधरेगी और गरीब लोगों के भी बच्चे बढ़िया गुणवत्ता वाली शिक्षा पा सकेगे जिससे वे अपना भविष्य सुंदर बना सकेंगे अरे पर ये क्या सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को तो हर माह रुपये मिलने लगे और उसके दम पर वे प्राइवेट स्कूलों में गुणवत्ता युक्त शिक्षा भी पाने लगे उन्हे मिलने वाले इस सरकारी लाभ का तो गली गली शोर भी नहीं हुआ इस बारे में तो हजार में दस लोग भी नहीं जान पाए पर सरकार के उस जी.ओ का जिसमें फरमान था कि सभी सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढेंगे उसके बारे मे तो इतना हल्ला मचाया गया कि पूरी आवाम को तो इस बारे में पहाड़े की तरह रटा दिया गया और हाँ कल्पना में तो सभी सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ने भी लगे और सरकारी स्कूलों की शैक्षिक गुणवत्ता भी प्राइवेट स्कूलों के समकक्ष आ गयी अब क्या अब तो गरीबों के बच्चों की तो बल्ले बल्ले?आगे चलकर वे भी देश के कर्णधार बनेंगे,भारत के भाग्यविधाता बनेंगे पर हकीकत में कुछ भी नहीं बदला न कोई सरकारी अधिकारी या कर्मचारी का बच्चा ऐसे घटिया गुणवत्ता वाले स्कूलों का मुँह तक देखने आया और न ही किसी सरकारी स्कूल की शैक्षिक गुणवत्ता,व्यवस्था या सुविधाओं में कोई खास सुधार ही हुआ और न ही गरीबों के इन स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों का कोई भला क्योंकि सरकार को तो सिर्फ वोट पक्की करनी थी।सरकारी कर्मचारी भी खुश,गरीब जनता भी खुश।आबादी के कुछ प्रतिशत सरकारी कर्मचारियों के बच्चे फिर ऊपर जाएँगे,उनके वंश सामाजिक विकास की एक और सीढ़ी चढ़ेंगे और गरीब के बच्चे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से एक सीढ़ी और नीचे लुढ़केंगे।सामाजिक असमानता और बढ़ेगी लेकिन सरकारें तो चलती ही रहेंगी।सरकार चाहती तो सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के लिए अलग से ये सहूलियतें न मुहैया कराकर शिक्षा में समानता लाने हेतु सरकारी कर्मचारियों एवं अधिकारियों के लिए सख्त जी. ओ. भी ला सकती थी कि उनके बच्चों का सरकारी स्कूलों में पढ़ना अनिवार्य किया जा रहा है ऐसा न करने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों का वेतन रोकते हुए उन पर कड़ी अनुशासनात्मक कार्यवाही की जाएगी एवं भविष्य में हमेशा के लिए उनकी वेतन में वृद्धि पर रोक लगा दी जाएगी फिर देखते भला किस सरकारी अधिकारी या कर्मचारी की संताने सरकारी स्कूलों में पढ़ने नहीं आतीं लेकिन हाँ इससे सरकारी कर्मचारी सरकार से निश्चित रूप से नाराज हो जाते और यह सरकार की स्थिरता के लिए उचित नहीं होता पर हाँ उन बहुसंख्य गरीबों के बच्चों का भला जरूर हो जाता कारण जो ज्यादातर सरकारी अधिकारी व कर्मचारी निकम्मे और मुफ्त की वेतन खाने व मौज मारने के आदी हो चुके हैं जब उनके बच्चों के भविष्य निर्माण की बात आती तो बिना सरकारी प्रयास ही सरकारी स्कूलों की व्यवस्था सुदृढ़ हो जाती और पटरी पर आ जाती फिर जब ये नई नस्ल वास्तव में शिक्षित हो जाती तो आगे चलकर सरकार के लिए ही मुसीबत बन जाती।उसमे सही और गलत में भेद करने का विवेक आ जाता और कोई सरकार ऐसा हरगिज नहीं देखना चाहती और न ही कोई सरकारी नौकरशाह क्योंकि सिर्फ वे ही पीढ़ी दर पीढ़ी मलाई चाँटना चाहते हैं।कुछ अत्यंत अल्प लोग ही होंगे वास्तव में जिनकी सोंच ऐसी न हो और वास्तव में वे सही हों।सरकारें तो दोनो हाँथों में लड्डू लेना चाहती हैं और यही हकीकत है।