न्यू इण्डिया की मोदी-सरकार जनता को लूट रही!

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
—आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

इससे अधिक विडम्बना क्या होगी कि न्यू इण्डिया की मोदी-सरकार जनसामान्य से जुड़े हर क्षेत्र में उसका मानसिक और आर्थिक दोहन करती आ रही है। सच तो वह है कि वह ‘हिन्दू-मन्दिर-हिन्दुत्व’ की आड़ में जिस तरह से भारतीय समाज में घृणा और अलगाव की दुर्भावनाएँ पनपा कर अपना उल्लू सीधा करती आ रही है, उसके परिणाम और प्रभाव को देखते हुए भी जनसामान्य की आँखें अभी तक खुल नहीं पायी हैं। यह वह सरकार है, जो पूरी तरह से अँगरेज़ों की नीतियों को अपनाये हुए है। भारतीय समाज में तरह-तरह के सब्ज़बाग़ का दर्शन कराकर और असंवैधानिक दण्ड देने का भय दिखाकर जनसामान्य को भयभीत कर रखी है। हर तरह के हठकण्डे अपनाकर भारतीय समाज को कथित मोदी-सरकार बाँटने में सफल रही है। यही कारण है कि यह नृशंस, आत्मलोभी तथा दुर्दान्त सरकार वर्ष २०१४ से अब तक भारतीय समाज में भय भरकर मनमाना करती आ रही है। हर विभाग के सरकारी कर्मचारियों का संघटन मौन है ; इस आततायी सरकार की देशद्रोही नीतियों के विरुद्ध कोई भी कर्मचारी-संघटन प्रतिकार करने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। उसे डर है, कहीं सरकार ‘जबरन रिटायर’ न कर दे। देश की निरंकुश मोदी-सरकार के पास इस समय सबसे बड़ा हथियार है– कोई भी आरोप लगाकर ‘बलात् सेवामुक्त’ कर देना।

यह तो एक उदाहरण है, न जाने कितने केन्द्रीय कर्मचारी कथित सरकार की ग़लत आर्थिक नीतियों के कारण आर्थिक स्तर पर दुर्बल हो चुके हैं। देश की सरकार के पास संवेदना नहीं है; उसके पास देश, धर्म, जाति, वर्गादिक में बाँटकर अपना उल्लू सीधा करने की कला का ज्ञान अवश्य है; एक विषय से ध्यान हटाकर दूसरे विषय पर जनध्यान केन्द्रित करने के उपाय की समझ अवश्य है, भले ही उसके लिए देश में आग लग जाये। इसे हमने, पिछले सात वर्षों से देश को किस तरह से भभकती हुई ज्वालामुखी के मुहाने पर लाकर पटक दिया गया है और अन्य अवसरवादियों ने उसकी लपटों को सम्पूर्ण देश के हवाले कर दिया है, अच्छी तरह से देख लिया है।

असंघटित-संघटित रोज़गार देश से लगभग समाप्त हो चुके हैं। सीमान्त रोज़गार भी जाते रहे हैं। लघु-मध्यम उद्योगों की जिस गति में समाप्ति हुई है; बृहद् स्तरवाली उद्योगों और कम्पनियों से अब तक लाखों कर्मचारी जिस तरह से निकाले जा चुके हैं, इसे हमने अच्छी तरह से देख-समझ लिया है। उनसे केन्द्र-सरकार की देशविरोधी और जनविरोधी आर्थिक नीतियाँ प्रत्यक्षत: उत्तरदायी हैं।

जिस प्रकार ‘मण्डल-आयोग’ को लागू कर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भारतीय समाज में जातीय कषैलापन का बीज-वपन कर देश की योग्यता का गला घोंटा था उसी प्रकार वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने ‘नोट-परिवर्त्तन’ (कथित नोटबन्दी) कर, देश की आर्थिक विकास की ‘अरथी’ निकाल कर ‘कालुष्य का एक अमिट दाग़’ अपने चेहरे पर स्वयं चिपका लिया है। उक्त दोनों ही प्रधानमन्त्री ‘भारतीय राजनीतिक इतिहास के बर्बर और नितान्त संवेदनहीन प्रधानमन्त्री के रूप में रेखांकित होते रहेंगे, इससे इंकार नहीं किया जा सकता।

किसी भी अप्रत्याशित उपक्रम को व्यावहारिक रूप देने से पूर्व उसके अंग-उपांगों पर विषय-विशेषज्ञों के साथ बैठकर सम्यक् रूपेण विचार करना पड़ता है; क्योंकि भविष्य उससे कितना प्रभावित होगा और वही भविष्य जब वर्तमान का रूप ग्रहण करेगा तब उसका चेहरा कितना बदनुमा दिखायी देगा, इसके प्रति चिन्तनपक्ष अत्यधिक प्रभावक और जनगणमंगलकारी होना चाहिए, जबकि ऐसा नहीं रहा है। “एकोहम् द्वितीयो नास्ति” ध्वनित-प्रतिध्वनित होती रही। आज स्थिति यह है कि भारत की आर्थिक स्थिति पूरी तरह से बेलगाम हो चुकी है।
पहली ओर, अन्तर्-राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल के मूल्यों में कमी आयी है, जबकि दूसरी ओर, कथित मोदी-सरकार आये-दिन पेट्रोल-डीजल, गैस-ईंधन के मूल्यों में बढ़ोतरी कर, जनसामान्य की कमर तोड़ती आ रही है। सरकार की अदूरदर्शिता और घृणित स्वार्थपरता के कारण महँगाई अपने चरम पर है। जिस देश का विकास-दर ऋणात्मक में रहे, उसके लिए डूब मरने की बात है; क्योंकि उसके कारण जनसामान्य पर आर्थिक बोझ पड़ता है।

तथाकथित सरकार केवल ‘प्रतिशोध’ की राजनीति करती आ रही है। देश के प्रमुख उद्योगपतियों की गोद में खेलनेवाली मोदी-सरकार की विषैली नज़र अब कृषकों के खेत-खलियान/खलिहान पर स्थिर हो चुकी है। जिस निरंकुशता का परिचय देते हुए, इस कृषकघाती सरकार ने हमारे अन्नदाताओं के हितों के साथ बलात्कार करते हुए, जिन तीन विधेयकों को सदन में बिना उस पर बहस कराये चोरगली से ‘अध्यादेश’ लागू कराकर उन्हें ‘क़ानून’ का रूप दे दिया है, उससे हमारे देश का किसान अपने अस्तित्व के लिए घातक समझ कर महीनों से आन्दोलनरत है, जिसके परिणामस्वरूप हमारी आर्थिक व्यवस्था चरमराती हुई दिख रही है, जिसका प्रत्यक्षत: कुप्रभाव जनसामान्य पर पड़ चुका है :– खाद्यपदार्थ से लेकर प्रत्येक वस्तुओं के मूल्यों में बेतहाशा वृद्धि होती जा रही है और मोदी-सरकार ‘धृतराष्ट्र’ बनी हुई है।

आज आर्थिक स्तर पर भारत पाकिस्तान और बांग्लादेश से भी बदतर स्थिति में है; भुखमरी में भी भारत अभी बहुत ही शोचनीय स्थिति में है। ऐसा प्रतीत होता है, मानो सरकार चलानेवाले अपनी माँ की कोख से ही ‘आर्थिक सलाहकार’ की शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करके आये हों। देश की सरकार की निगाहें आज प्रत्येक भारतीय के आर्थिक स्रोत पर लगी हुई है, जो कि एक प्रकार से ‘सरकार के मरणकाल’ की ओर इशारा भी करता है।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ३० दिसम्बर, २०२० ईसवी।)