परिचर्चा- देश का विपक्ष जब तक एकजुट नहीं होगा, लोकतन्त्र कराहता रहेगा

सूत्रधार : पृथ्वीनाथ पाण्डेय- 

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

अनिवेर्ति तिवारी- सर वर्तमान में दलीय तानाशाही का यह सबसे प्रमुख कारण है ।

पृथ्वीनाथ पाण्डेय- बिलकुल, सभी दलवाले अहम्मन्यता से ग्रस्त हैं, जिसका दूरगामी परिणाम दिख रहा है।

निर्भय विक्रम बहादुर सिंह- विपक्ष 2019 के आम चुनाव में ही एक होगा क्योंकि अभी तो देश की जनता को मूर्ख बनाना है।

पृथ्वीनाथ पाण्डेय- कुछ नहीं कहा जा सकता।

राजू रजक- आज भारत में लोकतंत्र रो रहा है

पृथ्वीनाथ पाण्डेय- घायल है।

जगन्नाथ शुक्ल- लोकतन्त्र कल भी रो रहा था और आज भी रो रहा है,बस समय के साथ ह्रास की गति बढ़ती जा रही है।

पृथ्वीनाथ पाण्डेय- अब बहुत घायल हो चुका है।

रविन्द्र पाण्डेय- भारत में लोकतंत्र तो 1952 से कराह रहा है। अपनी राजनीतिक गोट चमकाने के लिए देश के तत्कालीन शीर्ष नेताओं ने कुछ ऐसे समझौते किये कि लोकतंत्र यहां पनप ही नहीं पाया। पहले व्यक्तिवाद और फिर वंशवाद की परम्परा शुरू हो गयी। जिसने भारतीय लोकतंत्र को छिन्न भिन्न कर खूब मनमानी की। यहां भीड़ तंत्र है जिसे संभालना सबके बूते की बात नहीं।

पृथ्वीनाथ पाण्डेय- आपकी दृष्टि में सर्व-स्वीकार्य कोई मार्ग है?

रविन्द्र पाण्डेय- इतिहास अपने कालखंड के साथ आगे बढता है। यह भाजपा का नहीं हिंदुत्व का कालखंड है। जिसे हम सनातन परंपरा मानते हैं। लोकतंत्र तो एक पायदान मात्र है। इसका एक नियंता होता है। लोकतंत्र की जन्मभूमि वैशाली में लिच्छवियों का शासन था। लेकिन उसे गणराज्य कहा गया। इसी तरह हिंदुत्व काल का नेतृत्व भाजपा कर रही है।

देवमणि मिश्र- जब तक हमारे मन से शार्टकट से सफलता प्राप्त करने की स्वार्थलिप्सा, स्वयं को ही सर्वश्रेष्ठ समझने के अहंकारी भाव की ललक समाप्त नही होगी, हमारा सामाजिक चरित्र नही बदल सकता और जिस देश का सामाजिक चरित्र स्वस्थ नही होगा वहाँ नेतृत्व यदि सही हाथों मे भी हो तो ऐसे समाज से निकले महान आलोचक उसके निर्णयों की दिन रात इतनी खिंचाई कर देंगें और इतने रोड़े अटकायेंगे कि कोई योजना सफल ही नही होने पायेगी, ऐसे मे सच्चे लोकतंत्र की कल्पना ही बेईमानी लगती है ।

पृथ्वीनाथ पाण्डेय- ऐसे में, ‘समन्वय-मार्ग’ क्या हो सकता है?

देवमणि मिश्र- पाण्डेय जी आप आप स्वंय बहमुखी प्रतिभा से युक्त स्वप्नद्रष्टा एवं विचारक हैं, फिर भी आपकी परचर्चा को आगे बढ़ाने के क्रम में मेरी सामान्य समझ बस यहीं आकर टिक जाती है कि जब तक समाज का हर नागरिक सुशिक्षित, स्वाभिमानी, पुरुषार्थी, निःस्वार्थी नहीं होगा तब तक लोकतंत्र की सही स्थापना संभव नहीं है।
जहाँ तक समन्वय के मार्ग की तलाश का प्रश्न है, इसके लिये निष्पक्ष भाव से जब तक देश की सत्ता का सुख भोग चुके हुक्मरानों की सत्ता से पूर्व व पश्चात की परिसंपत्तियों की स्वतंत्र एजेसीं से जाँच करा कर दंडित करने की कार्यवाही नही होती, तब तक समस्या का निदान संभव नही है। आजादी के बाद से अब तक के सत्ता के केंद्र रही सरकारों की नीतियों की निष्पक्ष समीक्षा कर उनका तटस्थ मूल्याकंन कर सर्वोच्च स्थान वाली राजनीतिक पार्टी को व्यापक जन समर्थन के साथ सरकार मजबूत सरकार का गठन किया जाय।

रविन्द्र पाण्डेय- लोकतंत्र में सर्व स्वीकार्य कोई दल या व्यक्ति हो ही नहीं सकता। यही तो लोकतंत्र की खूबसूरती है। रंक भी राजा यानि देश का नेतृत्व कर्ता बन सकता है।

देवमणि मिश्र- बिल्कुल सही पाण्डेय जी मगरऐसे नेतृत्व कर्ता को सही ढंग परख कर चयन तो आदर्श समाज की सुशिक्षित,निष्पक्ष और योग्य जनता ही कर सकती है

रविन्द्र पाण्डेय- स्वस्थ लोकतंत्र की परिकल्पना फिलहाल भारत में संभव नहीं दिखती। देश की 45 फीसदी जनता अशिक्षित है। 80 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। बहुत कोशिशों के बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में 55 से 60 फीसदी और मतदान हो पाया था। कोऊ नृप होय हमैं का हानि पर भारत का लोकतंत्र दौड़ रहा है। आगे क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता।

पृथ्वीनाथ पाण्डेय- सहमत हूँ।