एक अभिव्यक्ति : जवानी ने भी छीन लीं किलकारियाँ, बुढ़ापे का बचपन महसूस होता है

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

 डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय-


ग़म-ख़ुशी का फ़र्क़ महसूस होता है, 

अपना भी न कोई महसूस होता है |

सौग़ात में मिलता रहा एक दर्द-सा, 

रिश्तों में दरार अब महसूस होताहै |

जवानी ने भी छीन लीं किलकारियाँ,

बुढ़ापे का बचपन महसूस होता है |

कुछ अपने-से लगे हैं पर उतने नहीं,

जाने क्यों ख़ालीपन महसूस होता है |

चलो पृथ्वी! चलें, एकान्त में कहीं,

जहाँ कुछ बेहतर महसूस होता है |

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय; ८ अक्तूबर, २०१७ ई०)