न्याय और न्यायालय को ‘हँसी’ का पात्र मत बनाओ

■ प्रकरण– निर्भया का सामूहिक बलात्कार और उसकी नृशंस हत्या

—डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

अक्षय, मुकेश, पवन तथा विनय की दशा-दिशा :–
बकरे की माँ ‘कब तक’ ख़ैर मनायेगी?

दुर्दान्त अपराधियों का वकील ए०पी० सिंह जानता है कि उसके चहेते गुनहगार बच नहीं सकते; लूटते रहो, जितना लूट सको।

अब क़ानून में संशोधन अपेक्षित है और वांछित भी, ताकि भविष्य में मृत्युदण्ड प्राप्त अपराधियों को घोषित तिथि और समय पर प्राणदण्ड दिया जा सके। अपराधियों को बचाव के लिए एक अवधि निर्धारित करनी होगी, जिसके भीतर ही उनके वकील निर्धारित सभी क़ानूनी हथकण्डे अपना लें।

निर्भया के अपराधियों की गरदन कबकी ही झूल गयी रहती; परन्तु शिथिल विधिक प्रविधानों के कारण ही अपराधियों के वकील सोची-समझी रणनीति के अन्तर्गत दोषियों को बचाते आ रहे हैं। यह एक प्रकार का हास्यास्पद और बीभत्स विधिक कृत्य है। ऐसे में, उच्चतम न्यायालय की संविधानपीठ के न्यायाधीशवृन्द को कठोरता के साथ अपराधियों और उनके वकीलों के सभी दलायल (दलील का बहुवचन) को निरस्त करना होगा, अन्यथा ‘न्याय’ और ‘न्यायालय’ हँसी का पात्र बनता रहेगा।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १७ फ़रवरी, २०२२ ईसवी)