जो लाता है गंगा की परबी की बेला, ककोड़ा का मेला, ककोड़ा का मेला

यूं तो ककोड़ा मेला 5 नवंबर को झंडी पहुंचने के बाद आरंभ हो जाता है । लेकिन “ककोड़ा मेला” आते ही शहर के हास्य व्यंग्य के विख्यात कवि शमशेर बहादुर “आँचल जी” याद आ जाते हैं । अपनी पुस्तक “मेला ककोड़ा दर्शन” में ये मेला कब लगा, किसने लगवाया, कहाँ लगता है, क्यों लगता, और सबसे बड़ी बात इस मेले में कहाँ पर क्या होता है आदि उन्होंने काव्यात्मक तरह से लिखा है ।

वह लिखते हैं कि-
इसी देश में एक “बदायूं” जिला है, कि वेदों से जिसका रहा सिलसिला है”
“इसी के निकट शेखूपुर नाम धारे, बसा गांव है इक नदी के किनारे”
“इसी गांव के थे इक नब्बाबे आला, उन्ही का मैं देते हुए कुछ हवाला”
“बढ़ाता हूँ किस्सा सुनो थोड़ा-थोड़ा, लगा कैसे आखिर ये मेला ककोड़ा” ?

“आंचल” जी ने लिखा है कि नबाब साहब को कुष्ठ रोग हो गया था-
“गरज जहर खा करके मरने की ठानी, लगा रोग जिसमे वो क्या जिन्दगानी” ??
“कोई वैध अत्तार छोड़ा नहीं था, कि जिससे के संपर्क जोड़ा नहीं था”
“हुआ स्वप्न गंगा किनारे पे जायें , वहीं डालें डेरा, पिये जल, नहाए”
“अगर गंगा माँ से यह नाता रहेगा, तो तय समझो यह रोग जाता रहेगा”
“आंचल” जी आगे लिखते हैं कि-
सत्रह सौ अढ़सठ की सन रास आई , न भूले से बीमारी फिर पास आई ।

इस तरह “आँचल जी” अपनी लेखनी को आगे बढ़ाते चले गये और इस पुस्तक को पढ़ने वाले लोगो को मेले के इतिहास और भूगोल से परीचित कराते हैं ।

“आँचल जी” की इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मेला ककोड़ा का जवाब और इतिहास पढ़ने के बाद मेले में घूमने जैसी अनुभूति प्राप्त होती है ।

कवि”आँचल जी” मेले में प्रतिवर्ष अपना “नि:स्वार्थ सेवा शिविर” (कैम्प) भी लगाते हैं और गंगा किनारे लगभग 28 वर्षो से “रैन बसेरा” भी लगाते हैं । जिसमे हर वर्ष इस पुस्तक की ‘दो हजार प्रतियाँ ” नि:शुल्क वितरित की जाती हैं ।
“रैन बसेरे” में जल एवं प्रकाश के साथ साथ जरुरतमंदो को चाय खाने की व्यवस्था भी रहती है । पुस्तक का अंत गंगा माँ की आरती से होता है