● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
प्रिय पाठकवृन्द!
आपने ‘भाग– दो’ मे निर्देशक-चिह्न, विवरण-चिह्न, अल्प विरामचिह्न, हिन्दी-वर्णमाला, व्यंजन-लेखन, विकारी-अविकारी शब्द-प्रयोग मे घालमेल करने, अशुद्ध शब्द-व्यवहार, अशुद्ध योजक-चिह्न-व्यवहार, अनुपयुक्त संख्यावाचक-लेखन आदिक से सम्बन्धित प्रामाणिक लेख का अध्ययन किया था।
अब अब आप तीसरे और अन्तिम भाग मे कई उपयोगी और महत्त्वपूर्ण बिन्दुओँ का अध्ययन करेँगे।
– सम्पादक
पृष्ठसंख्या १२ पर छठी-सातवीँ पंक्तियोँ मे '(देखें संदर्भ ३.७' और 'देखें संदर्भ ३.८)' अशुद्ध प्रयोग है; क्योँकि जब 'देखें' शब्द है तब इसका अर्थ है कि वहाँ निर्देश किया जा रहा है, इसलिए उसे इसप्रकार लिखा जायेगा– '(देखेँ– संदर्भ ३.७) और देखेँ– संदर्भ ३.८)। पृष्ठसंख्या १९-२० पर 'अनुनासिक चिह्न' (चन्द्रबिन्दु) के अन्तर्गत कहा गया है, ''हिंदी के शब्दों में उचित ढंग से चंद्रबिंदु का प्रयोग करना अनिवार्य होगा।'' निदेशालय की ओर से अपने ही अनुशासन की अवहेलना करते हुए 'शब्दोँ', 'माँगेँ' की जगह 'शब्दों' और 'माँगें' मुद्रित किया गया है। इतना ही नहीँ, पृष्ठसंख्या २० की पन्द्रहवीँ पंक्ति मे निदेशालय की ओर से 'क्यों' और 'खींचना' तथा 'क्योँ' और 'खीँचना' दोनो को ही मानक शब्द माना गया है, जबकि निदेशालय-द्वारा इसी पृष्ठ पर बताये गये अनुनासिक-प्रयोग के नियमानुसार, 'क्यों' और 'खींचना' व्याकरणीय नियमान्तर्गत अशुद्ध है। ऐसे मे, निदेशालय की विशेषज्ञ-समिति के सदस्या-सदस्योँ से प्रश्न है :– 'शब्दों' और 'माँगें' मे क्रमश: 'दो' और 'गे' मे अनुस्वार-चिह्न (ं) क्योँ लगेगा, जबकि अनुस्वार का प्रयोग केवल तत्सम शब्दोँ मे किया जाता है? यहीँ ३.६.२.३ नियम के अन्तर्गत पहली पंक्ति मे 'जैसे- हंस/हँस, अंगना/अँगना' मुद्रित हैँ। निदेशालय के विशेषज्ञोँ को जान लेना चाहिए कि / यह चिह्न वा/ अथवा का सूचक है, जबकि यहाँ योजकचिह्न का व्यवहार करते हुए, उसे इसप्रकार लिखना चाहिए था– 'हंस-हँस', 'अंगना-अँगना'; क्योँकि क्रमश: दोनो शब्दोँ मे अनुस्वार और अनुनासिक मे अन्तर को स्पष्ट किया गया है। निदेशालय की विशेषज्ञसमिति को बोध होना चाहिए कि निदेशालय के मानकीकरण-नियम और व्याकरणविधान के अनुसार, अध: टंकित शब्दोँ मे अनुनासिक-चिह्न लगाये जाते हैँ :–
शब्दोँ, हूँ, होँ, क्योँकि, क्योँ, ज्योँ-त्योँ, हुईँ, बनायेँ, खायेँ, गायेँ, तुम्हेँ, बातेँ-बातोँ, घरोँ, गायेँ, खानोँ, बनेँ, तथ्योँ, कविताएँ- कविताओँ, समाचारपत्रोँ, पत्रिकाएँ-पत्रिकाओँ, परीक्षाएँ- परीक्षाओँ, घटनाएँ-घटनाओँ, पाठ्यपुस्तकेँ-पाठ्यपुस्तकोँ, आँखेँ-आँखोँ, दाँतोँ, गाँठोँ, आँतोँ कहानियाँ-कहानियोँ, ख़बरेँ- ख़बरोँ, निबन्धोँ, लेखोँ, माँगेँ-माँगोँ, अध्यापकोँ, ट्रकेँ-ट्रकोँ, गाड़ियाँ, समीक्षाएँ-समीक्षाओँ इत्यादिक। इनके अतिरिक्त पंचमाक्षरोँ :– ङ, ञ, ण, न तथा म मे अलग से बिन्दी नहीँ लगायी जायेगी; क्योँकि वे अनुस्वारयुक्त होते हैँ, जिनका अनुभव उच्चारण-स्तर पर किया जाता है; जैसे– कारणो, वर्णो, दोनो, अपनो, मानो, मै, मैने, हमे इत्यादिक। जहाँ इनका उच्चारण-प्रभाव कम वा अधिक होता है वहाँ ‘अनुनासिक’ का प्रयोग किया जाना चाहिए; जैसे– ‘मा (मत), माँ (माता)’, ‘बने-बनेँ’; लेकिन निदेशालय की ओर से ही इसका व्यवहार न तो किया जा रहा और न ही कराया जा रहा है, अन्यथा आज हमारे विद्यार्थी और अध्यापिका-अध्यापक इसका प्रयोग कर रहे होते। इस विषय मे वास्तविक विशेषज्ञोँ को मिल-बैठकर एक निश्चित निर्णय करना होगा, ताकि भ्रम की स्थिति दूर हो सके।
पृष्ठसंख्या २० पर ‘विसर्ग’ शीर्षक के अन्तर्गत निदेशालय ‘दु:खानुभूति’, ‘दु:खार्त’, ‘दु:खान्त’ मे ‘दु:’ को शुद्ध मानता है, जबकि ‘सुख’ के साथ जुड़े शब्द ‘दु:ख’ मे ‘दु:’ के प्रयोग को नकार देता है; वह ‘दुख-सुख’ को सही मानता है; परन्तु क्योँ सही मानता है, इसे व्याकरणीय आधार पर बताने मे समर्थ नहीँ दिखता। उसी के आगे बताता है, ”तत्सम शब्दों के अंत में प्रयुक्त विसर्ग का प्रयोग अनिवार्य है।” निदेशालय की विशेषज्ञ-समिति के सदस्यासदस्याओँ को समझना होगा कि मूल शब्द ‘दु:ख’ जहाँ भी और जिस रूप मे जिस किसी शब्द के साथ जुड़ेगा वहाँ उसका रूप ‘दु:ख’ ही रहेगा, इसलिए ‘दु:ख-सुख’ मानक शब्दप्रयोग है और ‘दुख-सुख’ अमानक।
इसका अर्थ यह भी है कि निदेशालय के विशेषज्ञोँ को नहीँ मालूम कि ‘दु:ख-सुख’ (दु:खेन-सुखेन) तत्सम शब्द है; जैसे– दु:खी, दु: स्वप्न, नि: संकोच, नि: स्वार्थ इत्यादिक शताधिक शब्द हैँ।
इसीप्रकार के एक और दिशाहीन नियम को समझेँ। पृष्ठसंख्या २१ पर ‘हल्-चिह्न’ के अन्तर्गत बताया गया है कि ‘जगत्+ईश= जगदीश’ के ‘जगत’ मे हल्-चिह्न (जगत्) का प्रयोग होगा; परन्तु केवल ‘जगत’ शब्द लिखते समय हलचिह्न का प्रयोग करते हुए, ‘जगत्’ नहीँ लिखा जायेगा। प्रश्न है– जब ‘जगत्’ की उपेक्षा कर, ‘जगदीश’ का विच्छेद करने के लिए ‘जगत्’ का सहारा लिया जा रहा है तब उसके मूल शब्द ‘जगत्’ को नकारने का व्याकरणीय औचित्य क्या है? ‘केंद्रीय हिंदी निदेशालय’ को इसपर पुनर्विचार करना होगा।
पृष्ठसंख्या २१-२२ पर ‘वाला’ प्रत्यय के अन्तर्गत कहा गया है, “क्रिया-रूपोँ मे ‘करने वाला’, ‘आने वाला’, ‘बोलने वाला’ आदि को अलग से लिखा जाए, जैसे मैं घर जाने वाला हूँ, जाने वाले लोग।” निदेशालय के विशेषज्ञ ‘गाँववाला’, ‘टोपीवाला’, ‘घरवाला’, ‘दिलवाला’, ‘दूधवाला’ को मिलाकर लिखने के पक्षधर हैँ; परन्तु ‘दिलवाला आशिक़’, ‘गाँववाला घर’ जैसे शब्दोँ मे ‘वाला’ को अलग-अलग लिखने का निर्देश करते हैँ। व्याकरण का नियम है कि प्रत्यय शब्दोँ के अन्त मे जुड़ते हैँ और उन्हेँ शब्दोँ के साथ जोड़कर ही लिखा जाता है, अन्यथा प्रत्यय-प्रयोग का कोई अर्थ ही नहीँ होगा। उदाहरण के लिए– आनेवाला कल, दिलदार इंसान, अक़्लमन्द आदमी, प्रतिभावान् विद्यार्थी, गौरवशाली परम्परा, विकासमान् भारत, बुद्धिमान/बुद्धियुक्त/बुद्धिवाला मनुष्य इत्यादिक। इसप्रकार ‘वह जानेवाला है।’ ‘वह कुछ कहनेवाला था।’ भी शुद्ध हैँ। इससे शब्द-व्यवहार मे एकरूपता भी दिखेगी।
उक्त पुस्तिका मे ‘सूचनाएँ’, ‘सूचनाओँ’ का अनेक स्थलोँ पर प्रयोग किया गया है, जोकि अशुद्ध है; क्योँकि ‘सूचना’, ‘विवरण’, ‘जानकारी’ इत्यादिक के अलग से बहुवचन नहीँ बनाये जाते; क्योँकि ये ‘एकीकृत’ शब्द हैँ।
इस लघु पुस्तक मे ‘तत्त्व’, ‘महत्त्व’ इत्यादिक शब्दोँ को शुद्ध माना गया है; परन्तु इसी विवरणिका मे इन्हीँ शब्दोँ को ‘तत्व’ (पृष्ठसंख्या ६; उन्नीसवीँ पंक्ति– पुरातत्ववेत्ताओं), ‘महत्व’ (निदेशक की प्रस्तावना; पृष्ठसंख्या ५, ७; सातवीँ पंक्ति; नीचे से दूसरी पंक्ति) लिखा गया है।
निदेशालय की इस भ्रामक लघु पुस्तक मे इनके अतिरिक्त मानकीकरण के नाम पर बड़ी संख्या मे शब्द, वर्तनी, विरामचिह्नो, वाक्यविन्यासोँ आदिक की बड़ी संख्या मे अशुद्धि दिख रही है, जिन्हेँ लेकर विशेषज्ञसमिति के समस्त सदस्या-सदस्य को न्यायालय के कठघरे मे खड़ा किया जाना चाहिए। निदेशालय की ओर से ऐसे ही भ्रामक मानकीकरण-प्रचलन के कारण संघ लोक सेवा आयोग, राज्य लोक सेवा आयोग एवं अन्य प्रतियोगितात्मक परीक्षाएँ आयोजित करानेवाले संस्थानो की ओर से परीक्षाओँ के प्रश्नपत्रोँ, विशेषकर हिन्दीभाषा-सामान्य हिन्दी एवं साहित्य के प्रश्नपत्रोँ मे मे बड़ी संख्या मे भाषिक अशुद्धि दिखती आ रही है और दूर-दूर तक जागरूकता का नामो निशाँ तक नहीँ मिलता, जोकि नितान्त शोचनीय स्थिति है।
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