● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
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आत्मीय आभासी-अनाभासी मित्रवृन्द!
आपमे से बहुसंख्य मित्र (शाब्दिक) ऐसे हैँ, जो भयवश मेरे सम्प्रेषण पर कोई टिप्पणी नहीँ करते। उन्हेँ आशंका रहती है कि उनके अशुद्ध लेखन पर सीधे अँगुली (‘अंगुली’ अशुद्ध है।) उठ खड़ी होगी। ऐसी मानसिकतावाले लोग न तो सीख पाते हैँ और न ही सिखा पाते हैँ, जिसके कारण ऐसे भीरुजन वास्तविक शब्दविशेषज्ञ वा वैयाकरण (व्याकरण का ज्ञाता/व्याकरणशास्त्री/व्याकरणविद्/व्याकरणवेत्ता/व्याकरणाचार्य के सम्मुख मौखिक और लिखित स्तर पर जब अशुद्ध शब्दप्रयोग करते हैँ तब ‘परिहास’ के पात्र बनकर रह जाते हैँ।
मै जो कुछ और जैसा भी लेखन/टंकण करता हूँ, उसमे किसी को किसी प्रकार का दोष दिखे तो निस्संकोच/बेहिचक संशोधित कर, मेरा मार्गदर्शन करेँ, कृतज्ञ रहूँगा; क्योँकि मै अभी सीख रहा हूँ; विद्यार्थी का जीवन-यापन कर रहा हूँ, जो यावज्जीवन/आजीवन/ जन्मपर्यन्त/जीवनभर (‘यावद्जीवन’ अशुद्ध है।) चलता रहेगा।
हाँ, मै एक-एक अंक और शब्द पर मुक्त भाव से विचार करता हूँ, जिसका आधार व्याकरण एवं भाषाविज्ञान होता है; विशेषत: उन अंकोँ-शब्दोँ पर, जिनका सहस्राब्दि/ सहस्राब्दी (‘सहस्त्राब्दि’, ‘सहस्त्राब्दी’ तथा ‘सहस्राब्दियोँ ‘ अशुद्ध हैँ।) से अनभिज्ञतावश अशुद्ध व्यवहार किया जाता रहा है। आज उसी स्वाध्याय के बल पर प्रयोगधर्मिता को प्रश्रय देता आ रहा हूँ; क्योँकि भाषाविज्ञानी (यहाँ ‘भाषावैज्ञानिक’ अशुद्ध है।)-परम्परा से हटकर और उसमे रहकर भी शब्दलोक का अनुध्यान करते हुए, चिन्तन-अनुचिन्तन करता है; वह आविष्कार करता है; अनुसंधान करता है एवं अन्वेषण भी, जिसका आधार उसका गवेषणात्मक दृष्टिबोध होता है। यह एक प्रकार का समन्वयात्मक दृष्टिकोण है।
एक विशेष बात, यदि किसी की टिप्पणी मे किसी प्रकार की अशुद्धि दिखती है तो स्वयं को नियन्त्रित नहीँ पाता हूँ और ‘संशोधित–’ टंकित कर शुद्ध और उपयुक्त (‘उपरोक्त’ अशुद्ध है।) शब्दप्रयोग को टंकित कर देता हूँ; क्योँकि वैसा न करने का भाव उत्पन्न होते ही ‘अपराध-बोध’ का जन्म होने लगता है। यदि संशोधन करने के बाद भी सम्बन्धित व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीँ पड़ता वा वह ‘चिकना घड़ा’ का चरित्र ग्रहण कर लेता है तो भविष्य मे उसके सम्प्रेषण को किंचित् ‘महत्त्व’ नहीँ देता, चाहेँ वह कितने बड़े पद पर हो तथा मेरे कितने निकट हो। मिथ्यावादियोँ, ग़लत आश्वासन करनेवालोँ तथा अपनी वचनबद्धता के प्रति रहित जन से सदैव के लिए ‘दूरी’ बना लेता हूँ; क्योँकि मेरे साथ दीर्घकाल तक वही व्यक्ति (घर-बाहर) चल सकता है, जो ‘कथन और कर्म’ के धरातल पर पूर्णत: उन्नत लक्षित होता रहे; एकरूप बना रहे, अन्यथा “तू अपनी राह और मै अपनी”। अपने (यहाँ ‘अपनी’ अशुद्ध है।) शब्दशुचिता-अभियान मे किंचिन्मात्र बाधक दिखनेवालोँ, अपने ‘पूर्वग्रह’ (यहाँ ‘पूर्वाग्रह’ अशुद्ध है।) का बोध करानेवालोँ तथा ‘कुत्सित’ मनोवृत्तिधारकोँ को तत्काल ‘निरुद्ध’ कर देता हूँ; क्योँकि ‘संवादहीनता’ से सुदूर बने रहने एवं कष्टसाध्य मार्ग से परे रहने के लिए यह एकमात्र ‘निरापद-मार्ग’ (‘सुरक्षित मार्ग) है, जो मेरे लिए निर्वैकल्पिक (विकल्पराहित्य, विकल्प से रहित) होता है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २६ नवम्बर, २०२४ ईसवी।)