करुनानिधान रामजी का शील-स्नेह

रामजी तो साक्षात परमब्रह्म हैं और उनसे भी बढ़कर तो उनके महामंत्र “नाम” के प्रभाव हैं। जिसे माँ शारदा, वाल्मीकि और महादेव भलीभांति जानते हैं। तो उनके चरित्र कितने अनुपम होंगे, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है? रामजी के उत्तम शील-स्वभाव को मैं दुर्बुद्धि की कुदाल लिखना चाहूँ तो मैं उनका निरादर ही कर रहा हूं। प्रभु इतने कृपालु हैं कि वो मेरी इस धृष्टता को जरूर क्षमा करेंगे। मैं उनके स्वभाव के कुछ अंशों को इकठ्ठा कर आपसब तक पहुंचाने की भूमिका मात्र में हूँ।

कुपित परशुरामजी को प्रभु श्रीराम अपने शील भरे मृदु वचनों से स्वयं को अपराधी मानकर उन्हें ठंडा करते हैं और कहते हैं कृपा, क्रोध या मेरा वध; जिसे कर लेने से भी आपका क्रोध चला जाये आप वह कीजिए। हमारी आपकी क्या बराबरी? हम तो सभी प्रकार से आपसे छोटे हैं और हारे हैं मेरे अपराधों को क्षमा कीजिए और मुझे अपना दास ही जानिये। रामजी की इतनी शीतलता से तो चंदन भी तिरस्कृत जान पड़ता है।

महर्षि वशिष्ठ रामजी के शील-स्वभाव की प्रशंसा करके उनके राज्याभिषेक करने की बात कहते हैं। यह सुनकर ही रामजी को कष्ट हो जाता है, वो कहते हैं हम सभी भाई एक साथ जन्मे, भोजन-शयन भी साथ में किया और यहां तक कि यज्ञोपवीत और विवाह संस्कार भी साथ-साथ ही हुए, फिर यह अनुचित बात इस राज्य में क्यों हो रही है कि सब मेरे अतिप्रिय भाइयों को छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही होगा! ऐसा मधुर चिंतन तो कृपालु रघुनाथ का ही हो सकता है।

रामजी के मृदुल स्वभाव जैसा व्यक्तित्व और कहीं नही है और न होने को है। भरतजी इस बात के एकमात्र साक्षी हैं। भरतजी कहते हैं कि वो अपराधी पर भी कभी क्रोधित नही हुए। मैंने खेल में उनका कभी अप्रसन्न भाव नही देखा। बचपन में बड़े भैया के कोमल स्वभाव को मैंने हृदय में भलीभांति समझ लिया था, खेल में हारने पर भी प्रभु मुझे जिता देते थे।

समस्त मर्यादाओं को तोड़ने वाले पापाचारी रावण के लिए प्रभु श्रीराम अपने शील से उसका हित करने की ही सोच रहे हैं। अंगद के लंका जाने से पहले वह अंगद को समझाते हैं कि शत्रु से वही व्यवहार और बातचीत करना जिससे हमारा कार्य सिद्ध हो और उसका कल्याण हो जाये। रामजी के समस्त चरित्र के उपरांत अंततोगत्वा श्रीकागभुशुण्डि जी पक्षिराज गरुणजी से रामजी के स्वभाव की बारंबार प्रशंसा कर हर्षित हो रहे हैं। कहते हैं कि जब मै किसी का भी ऐसा स्वभाव न कहीं सुनता हूँ और न देखता हूँ तब मैं श्री रघुनाथजी के समान किसे गिनूं?

अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ।
केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ॥

अभिजीत मिश्र, बालामऊ
जनपद- हरदोई, उ०प्र०