लुटती-पिटती-घिसटती मुसकान के मायने

उसकी भूख से बिलबिलाती आँतेँ–
अन्तहीन सिलसिला से संवाद करना चाहती हैँ।
उसकी चाहत–
चीथड़ोँ मे लिपटीँ-चिपटीँ-सिमटीँ;
अपनी पथराई आँखेँ पालतीँ;
टुकुर-टुकुर ताकतीँ;
आँखोँ से झपट लेने की तैयारी करतीँ,
मेले-झमेले की गवाह बनकर रह जाती हैँ।
उसके अन्तस् की उदासी–
आस-विश्वास की फटही झोली लिये,
तमन्ना-अर्मान की लाश ढोती–
फफोलोँ से सजी हथेलियों की
रेखागणित पढ़ती;
होठोँ को बिचकाती, फफकाती
अपने कपोलोँ पर ढुलक रही
अश्रु की व्यथा-कथा
गीली वसुधा के वक्षस्थल पर
रचती जा रही है।
उसके भीगते-सिसकते नेत्र–
‘कश्मीर से कन्याकुमारी तक’ के– भौगोलिक संदर्भ जीते आ रहे हैँ।
पदातिक मार्ग (फुटपाथ) पर– दुर्गन्धयुक्त लोथड़े को घसीट रहे गिद्धोँ को देख,
उसका मन आशान्वित हो उठता है।
उसकी स्वयं की सारी पीड़ा–
आशान्वित अँगुलियोँ के पोरोँ पर, समीकरण तैयार करने लगती है;
जीने की अंकगणित मुसकरा उठती है;
जिजीविषा कन्धे का संस्पर्श कर,
एक अभिनव आह्वान करती है।
फैली मरमरी बाँहेँ–
अविश्वास के कन्धे से ख़ुद को झटक कर,
जिगीषा के हाथ थाम,
नव स्फूर्ति, ऊर्जा-ऊष्मा से
स्वयं को सम्पृक्त कर लेती हैँ।
उसके मन-प्राण को,
एक सुदृढ़ आत्मविश्वास का– आधार मिल जाता है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १८ जुलाई, २०२४ ईसवी।)