
मनुष्य जीवन और जगत् मे जो कुछ देखता है, उसे वैसे ही पद्य अथवा गद्य मे ढाल देना 'साहित्य' नहीँ कहलाता। साहित्य-सर्जन के लिए रचनाधर्मी की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा का समय-सत्य सक्रिय रहना अपेक्षित होता है, जिनके माध्यम से वह जीवन और जगत् से ग्रहण की जानेवाली वस्तुओँ को एक कलात्मक रूप प्रदान करता है; उसमे अभिनव अर्थ और संकेत समाविष्ट रहता है; बिम्बयोजना; प्रतीकविधान; लक्षणा, व्यंजना आदिक के माध्यम से अपनी कृति को पुष्ट करता है। उसे ही 'साहित्य' की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार साहित्य मे 'यथातथ्यवाद' के लिए कोई स्थान नहीँ है।
यहीँ से हम 'समाज' और साहित्य' मेँ अन्तर पाते हैँ। समाज मनुष्य का भला करे, यह अनिवार्य और अपरिहार्य नहीँ है; किन्तु 'साहित्य' सोद्देश्य होता है, जो अपने अर्थ, अवधारणा, आशय तथा अभिप्राय के आधार पर समाज का हित-चिन्तन करता रहता है, जो जन-जन के मन-मस्तिष्क को परिपक्व करने में अपनी सार्थक भूमिका का निर्वहण करता है। यही कारण है कि साहित्य "सत्यं-शिवं-सुन्दरं" की संकल्पना को मूर्तरूप प्रदान करता है, जहाँ से एक केवल निनादित होता है, "एकोSहम् सर्वेषाम्/ बहुस्याम्", जो "एकोSहम् द्वितीयोनास्ति" का खण्डन करता हुआ सारस्वत पथ पर अग्रसर है।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ६ जुलाई, २०२४ ईसवी।)