● आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
नरेन्द्र मोदी-सरकार के विरुद्ध २६ जुलाई को लोकसभा मे प्रस्तुत किये गये अविश्वास-प्रस्ताव को लोकसभाध्यक्ष ओम बिड़ला-द्वारा स्वीकृत किये जाने के बाद जब तक उस पर पूरी कार्यवाही नहीं करा ली जाती तब तक किसी भी विधेयक को सदन मे प्रस्तुत करना अवैध कृत्य है; जबंकि मोदी-सरकार ने २६ जुलाई से ३ अगस्त के बीच लोकसभा मे ११ विधेयक पारित करा लिये हैं। विपक्षी दल के सांसद अवैध तरीक़े से पारित कराये गये इन्हीं विधेयकों के औचित्य पर प्रश्न कर रहे हैं; परन्तु सत्तापक्ष के नेता इसका उत्तर देने के स्थान पर विषयान्तर कथन करते आ रहे हैं, मानो ‘बेईमानी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का झण्डा लहरा रहे हों।
स्मरणीय है कि देश की सरकारों के विरुद्ध वर्ष १९६३ से अब तक सदन मे अविश्वास-प्रस्ताव पर २७ बार मतदान किये जा चुके हैं। वर्ष १९९२ मे नरसिम्हाराव के शासनकाल मे सरकार के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव स्वीकार किये जाने के छ: दिनो-बाद बहस शुरू की गयी थी, जिसे भारतीय संसदीय इतिहास मे सर्वाधिक अवधि मानी गयी है। सरकारी लोकसभा-अध्यक्ष के रूप मे प्रसिद्धि कमानेवाले ओम बिड़ला अविश्वास-प्रस्ताव को स्वीकृत किये जाने के बाद चुप्पी साधे रहे और यह निर्धारित नहीं कर पाये कि अविश्वास-प्रस्ताव पर किस दिनांक से बहस शुरू की जायेगी। जब ‘इण्डिया’ गठबन्धन के नेताओं ने दबाव बनाना शुरू किया तब जाकर ओम बिड़ला ने ८ अगस्त से १० अगस्त की अवधि निर्धारित की थी, जबकि ‘लोकसभा-कार्यसंचालन-नियम’ के अनुसार, नियम १९८ के अन्तर्गत लोकसभा के सांसद की ओर से अविश्वास-प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाता है, जिसे लोकसभा के स्पीकर-द्वारा स्वीकार किये जाने के १० कार्यदिवस के भीतर ही बहस कराकर मतदान कराना अनिवार्य होता है। इससे सुस्पष्ट हो जाता है कि अविश्वास-प्रस्ताव पर चर्चा के लिए जो दिनांक निर्धारित किये गये हैं, वे नरेन्द्र मोदी-सरकार की रणनीति का एक हिस्सा हैं। इससे ‘इण्डिया’ गठबन्धन के उद्देश्य को प्रभावित किया जा सकता है। लोकसभाध्यक्ष का यह कृत्य लोकसभा की नियम-परम्परा के पूर्णत: विपरीत है; क्योंकि नरेन्द्र मोदी-सरकार के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव पर १३ दिनो-बाद बहस शुरू होने की सम्भावना है। ‘सम्भावना’ शब्द का प्रयोग इसलिए है कि ‘मोदी ऐण्ड कम्पनी’ इस बीच देश को किसी भी घातक स्थिति मे डालकर नरेन्द्र मोदी को ‘इण्डिया’ के सांसदों का सामना करने से बचाना चाहेगी, हालाँकि इसकी उम्मीद बहुत कम रह गयी है।
मानसून-सत्र समाप्त भी होनेवाला है। इसकी कुल अवधि २० जुलाई से ११ अगस्त तक की है। इसी को ध्यान मे केन्द्रित करते हुए, ओम बिड़ला ने संसद् की गरिमा को ध्वस्त करते हुए, अपनी निरंकुशता का परिचय दिया है। ओम बिड़ला अपनी कार्यशैली से शुरू से ही सत्तापक्ष के समर्थक दिखते आ रहे हैं। उनकी इसी एकपक्षीय मानसिकता के परिणाम को देश ने राहुल गान्धी के विरुद्ध अवैध काररवाई के रूप मे भी देखा है।
प्रश्न है, जब देश की सरकार के नाम पर अपनी व्यक्तिगत सरकार चलानेवाले नरेन्द्र मोदी इस तरह के असंवैधानिक कृत्य करे-करायेंगे तब यदि जनसामान्य अवैध कृत्य करेगा तब उसे ‘आरोपित’ और ‘अपराधी’ की श्रेणी मे क्यों रखा जायेगा? क्या सरकार सर्वेसर्वा हो चुकी है? मनबढ़ और निरंकुश हो चुकी है? देश के संविधानवेत्ता ‘मौनी बाबा’ क्यों हो गये हैं? क्या देश की न्यायपालिका इसका स्वत: संज्ञान कर, ‘मोदी-सरकार’ को न्याय के कठघरे मे खड़ाकर स्पष्टीकरण की माँग करेगी?
२६ दलों का ‘इण्डिया’-गठबन्धन की ओर से अविश्वास-प्रस्ताव लाने का कारण नरेन्द्र मोदी की हठधर्मिता ही रही है। मणिपुर की बीभत्स और नृशंस घटना घटने के ढाई महीने से भी अधिक की अवधि गुज़र जाने के बाद भी नरेन्द्र मोदी का उक्त विषय पर मौन बने रहना, नवगठित गठबन्धन ‘इण्डिया’ के नेताओं और देश को बुरी तरह से चुभ गया है। उस गठबन्धन की ओर से बार-बार कहा जा रहा था कि नरेन्द्र मोदी संसद् मे आकर अपना वक्तव्य प्रस्तुत करें, जबकि वैसा नहीं हुआ; अन्तत:, विपक्षी दल के नेताओं को सम्मिलित रूप से संवैधानिक ब्रह्मास्त्र ‘अविश्वास-प्रस्ताव’ को प्रस्तुत करना पड़ा, जिससे नरेन्द्र मोदी चाहकर भी सदन मे आकर अपने वक्तव्य और सांसदों के प्रश्नो के उत्तर देने से बच नहीं सकेंगे। विपक्षी गठबन्धन के नेता जानते थे कि संसद् के मानसून-सत्र मे नरेन्द्र मोदी-सरकार को पूरी तरह से घेरा जा सकता है, इसीलिए सत्रारम्भ मे काँग्रेस के नेतृत्व मे विपक्षी दलों के नेताओं ने मणिपुर-घटना के विषय पर लोकसभा और राज्यसभा मे चर्चा की माँग करते हुए, प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी से सदन मे उपस्थित होकर उत्तर देने की बात की थी; लेकिन सत्तापक्ष की ओर कहा गया कि वह चर्चा के लिए प्रस्तुत हैं, जबकि उसने प्रधानमन्त्री से उत्तर देनेवाली माँग को स्वीकार नहीं किया था। विपक्षी दलों के नेता लोकसभा मे ‘नियम १८४’ और राज्यसभा मे ‘नियम २६७’ के अन्तर्गत चर्चा कराने की माँग पर अड़े रहे, जबकि सत्तापक्ष लोकसभा मे ‘नियम १९३’ और राज्यसभा मे ‘नियम १७६’ के अन्तर्गत चर्चा पर अड़ा रहा। वास्तव मे, इन नियमो के हेर-फेर मे विपक्षी और सत्तादलों के इरादे छिपे हैं। विपक्षी दल जिन नियमो के अन्तर्गत दोनो सदनो मे चर्चा कराना चाहते हैं, उसमे बहस बहुत अवधि तक की जा सकती है और अविश्वास-प्रस्ताव के पक्ष वा विपक्ष मे मतदान करने का प्रविधान भी है। सत्तापक्ष को अच्छी तरह से ज्ञात है कि मणिपुर-काण्ड उसकी सबसे अधिक कमज़ोर कड़ी है, जिसे लेकर प्रतिपक्षी दल सदन मे अतीव प्रभावी सिद्ध हो सकते हैं और वह मोदी-सरकार के लिए सिरदर्द साबित हो सकता है। ‘नरेन्द्र मोदी ऐण्ड कम्पनी’ को मालूम है कि मणिपुर और केन्द्र मे उन्हीं की सरकारे हैं, इसलिए ‘इण्डिया’ मोदी-सरकार को कटघरे मे लाकर देश के सामने उसके चाल, चरित्र तथा चेहरे को प्रस्तुत करना चाहता है। उच्चतम न्यायालय ने मणिपुर की एन० बिरेन और नरेन्द्र मोदी-सरकारों को बुरी तरह से लताड़ लगाते हुए, ४ मई, २०२३ ई० को घटित मणिपुर-घटना पर अपनी ओर से जाँच-समिति गठन करने की बात कही थी तब जाकर नरेन्द्र मोदी की तन्द्रा भंग हुई थी और उन्हें सार्वजनिक रूप से घटना को देश के लिए शर्मनाक बताते हुए, दोषियों के विरुद्ध कठोर काररवाई करने की बात कहनी पड़ी थी।
उल्लेखनीय है कि नरेन्द्र मोदी वर्ष २०१४ से अब तक मीडिया और विपक्षी दलों का सामना करने से लगातार बचते आ रहे हैं। इसके एक नहीं, सैकड़ों कारण है। उनके दोनो कार्यकाल मे महँगाई, भ्रष्टाचार, अशिक्षा, बेरोज़गारी, सभी तरह के अपराध, कदाचार, साम्प्रदायिक उन्माद आदिक चरम पर दिख रहे हैं, जिन्हें नरेन्द्र मोदी भी क़रीब से जानते हैं; परन्तु सत्तामोह मे वे आँखरहित, कानरहित तथा वाणीरहित हो चुके हैं। ‘नरेन्द्र मोदी ऐण्ड कम्पनी’ को मालूम है कि उसके पास लोकसभा मे बहुमत का आँकड़ा है। लोकसभा मे बहुमत का आँकड़ा २७२ सांसदों का है, जबकि उसके गठबन्धन एन० डी० ए० के पास ३३१ सदस्य हैं, जिनमे से भारतीय जनता पार्टी के पास ३०३ सांसद हैं। दूसरी ओर, ‘इण्डिया’ के पास १४४ सांसद हैं, जबकि बी० आर० एस०, वाई० एस० आर० सी० पी० तथा बी० जे० डी०-जैसे दलों के पास कुल ७० सांसद हैं। इण्डिया गठबन्धन-दल जानता है कि अविश्वास-प्रस्ताव पर उसकी पराजय निश्चित है; किन्तु उसे यह भी मालूम है कि इसी प्रस्ताव के बहाने नरेन्द्र मोदी को संसद् मे आकर चर्चा मे भाग लेने और प्रश्नो के उत्तर देने के लिए अनिवार्य रूप से बाध्य किया जा सकता है।
यहाँ एक बात सिद्ध हो जाती है कि जिस देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पं० जवाहरलाल नेहरू को विपक्षी दलों के प्रश्नो से छुटकारा पाने के लिए भागे-भागे फिरनेवाले नरेन्द्र मोदी अपशब्दों से सुशोभित करते आ रहे हैं, पहली बार अविश्वास-प्रस्ताव वर्ष १९६३ मे तीसरी लोकसभा की अवधि मे उसी पं० नेहरू के नेतृत्ववाली सरकार के विरुद्ध आचार्य जे० बी० कृपलानी-द्वारा लाया गया था, जिस पर ४ दिनो मे २१ घण्टे तक चर्चा की गयी थी, जिसमे ४० सांसदों की भागीदारी थी। जब पं० जवाहरलाल नेहरू के वक्तव्य करने की बारी आयी तब उन्होने कितनी शालीनतापूर्वक विचार व्यक्त किया था, समझें। उन्होंने सदन मे कहा था, “अविश्वास-प्रस्ताव का उद्देश्य सरकार मे पार्टी को हटाकर उसकी जगह लेना होता है या होना भी चाहिए। वर्तमान उदाहरण मे यह स्पष्ट है कि ऐसी कोई अपेक्षा या आशा नहीं थी और इसलिए कई मायनो मे बहस दिलचस्प थी और, मुझे लगता है कि लाभदायक भी थी, हालाँकि थोड़ी अवास्तविक थी। व्यक्तिगत रूप से मैने इस प्रस्ताव और बहस का स्वागत किया है। मैने महसूस किया है कि यदि हम समय-समय पर इस प्रकार के परीक्षण कराते रहें तो यह अच्छी बात है।”
क्या हम मानसून-सत्रान्त की अवधि मे विपक्षी दलों के नेताओं-द्वारा अविश्वास-प्रस्ताव के चर्चा के अन्त मे नरेन्द्र मोदी से भी ऐसे ही ‘भद्र विचार’ सुनने की अपेक्षा कर सकते हैं?
(सर्वाधिकार सुरक्षित― आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ६ अगस्त, २०२३ ईसवी।)