‘हिन्दूधर्म’ का औचित्य?

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय का विचारमन्थन

ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश जब ‘हिन्दू’ नहीं थे तब उनके उपासक ‘हिन्दूवादी’ कहाँ से आ गये? ‘तथ्य’ और ‘तर्क’ सनातन-सन्दर्भ मे सारगर्भित हो तभी ‘उत्तर’ दिया जाये। ‘धर्मान्धता ओढ़ा हुआ उत्तर’ स्वीकार्य नहीं है। शब्द-शब्द को समझेंगे तब उत्तर की सम्भावना को टटोल सकेंगे। ‘सिन्धुघाटी’ की सभ्यता, सैन्धव आदिक की प्रमाण के रूप मे प्रस्तुति भी मान्य नहीं होगी; क्योंकि त्रिदेव को ‘सृष्टि से पूर्व’ का माना गया है।

मन्थन—
सृष्टि पर किसी का भी एकाधिकार नहीं है। सत्, रज तथा तम के प्रतीक क्रमश: ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश को माना जाता है; साथ ही यही त्रिदेव क्रमश: सृष्टि की रचना, रक्षा तथा संहार भी करते आ रहे हैं, ऐसी अनुश्रुति भी है। ऐसे मे, इस सृष्टि के अन्तर्गत समस्त जड़ और चेतन परिव्याप्त हैं, फिर त्रिदेव मात्र ‘हिन्दू-विशेष’ के कैसे हो गये?

सहज ही एक ऐसा प्रश्न जन्म लेता है, जो अभी तक अनुत्तरित है : अन्तत:, हिन्दू आये कहाँ से? क्या त्रिदेव का सृष्टिलोक मात्र ‘भारत’ तक सीमित है? यदि हाँ तो अभी यह सुस्पष्ट नहीं है कि विश्व के स्थावर-जंगम का स्रष्टा कौन है?

ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ने कहीं पर भी नहीं कहा है– जो हिन्दू हैं, वही हमारी पूजा करने के अधिकारी हैं, फिर किसी समुदाय अथवा मत-विशेष को भी यह अधिकार कैसे मिल गया कि वह ‘त्रिदेव’ को मात्र अपनी कर्मकाण्डीय सम्पदा मान ले।

देव-देवियों ने सभी को सत्कर्म करते रहने की प्रेरणा दी है, जिसे मनुष्य अपना कर्त्तव्य मानकर, उस अलौकिक आदेश को धारण करता है।

इस प्रकार यहाँ धर्म की परिभाषा भी प्रकट होती है– “धारयते इति धर्म:”, अर्थात् जो धारण किया जाता है, वह धर्म है। इस प्रकार ‘हिन्दू’ कोई धर्म नहीं है; मुसलमान, सिक्ख, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी आदिक कोई धर्म नहीं हैं, प्रत्युत सामाजिक स्वार्थ-सिद्धि के लिए गठित पृथक्-पृथक् समुदायमात्र; मत-मात्र हैं।

‘जै सिरीराम’ (जय श्री राम’ शुद्ध है।) का क्रान्तिकारी उद्घोष करनेवालों के राम ने कभी नहीं कहा– मैं हिन्दू हूँ; हिन्दुओं मे हिन्दू हूँ; उन्होंने यदि कहीं अपना परिचय प्रस्तुत किया भी है तो ‘दसरथ-नन्दन’, ‘वनवासी’ अथवा ‘सूर्यवंशी राजकुमार’ के रूप मे। कृष्ण के तथाकथित उपासकों को भी ज्ञात होना चाहिए कि कृष्ण ने स्वयं को कहीं पर भी ‘हिन्दू’ नहीं कहा है; उन्होंने स्वयं को ‘नन्दगोपाल’ अथवा ‘यदुवंशी’ ही कहा है। वह कृष्ण, जिसके लिए कहा गया है, “कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।” अर्थात् कृष्ण तो स्वयं भगवान् (‘भगवान’ अशुद्ध है।) हैं। इतना ही नहीं, भगवान् के जिन चौबीस अवतारों का उल्लेख किया जाता है, उनमे से तेईस की अवतारणा हो चुकी है; चौबीसवें के रूप मे ‘कल्कि अवतार’ होना शेष है। उन तेईस अवतार लिये भगवान् मे से एक भी स्वयं को ‘हिन्दू’ नहीं कहता है, फिर यह ‘हिन्दू’ कहाँ से आ गया? यदि आ भी गया तो क्या ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र ही हिन्दू हैं; यदि हैं तो उसका कोई ठोस तार्किक-ताथ्यिक आधार अभी तक कोई भी प्रस्तुत नहीं कर पाया है।

धर्म मात्र एक है, और वह है, ‘प्रत्येक प्राणी का कर्त्तव्य, जिसे मात्र धारण किया जाता है, प्रकट (‘प्रगट’ अशुद्ध है।) नहीं किया जाता।

● हमारा अगला चिन्तन ‘तथाकथित मुस्लिमधर्म’ पर होगा।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १३ जून, २०२२ ईसवी।)