आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय का ‘राष्ट्र के नाम सन्देश’

स्वाधीनता-दिवस (१५ अगस्त) की पूर्व-सन्ध्या पर

मातृभूमि की अर्चना, आराधना, वन्दना तथा सरकार की लोकघातक नीतियों की भर्त्सना

जो लोग यह मानते हैं कि “वन्दे मातरम्” गाने से वे ‘काफ़िर’ की श्रेणी में आ जायेंगे, उनकी यह मान्यता पूर्णत: स्वरचित, स्वपोषित, स्वघोषित, असन्तुलित तथा एकपक्षीय मानसिकता की परिचायिका है; कारण कि “वन्दे मातरम्” में अपनी ‘जन्मभूमि, ‘मातृभूमि’ तथा ‘निसर्ग’ (प्रकृति) के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए, उसकी उपयोगिता और महत्ता का महिमा-मण्डन किया गया है, जिसे स्वीकार करना हम सभी भारतवासियों का परम कर्त्तव्य है।

मेरे दृष्टिपथ में जो विषय आता है, वह यह है कि चूँकि ‘राष्ट्रगीत’ की समस्त पंक्तियाँ ‘संस्कृत’-भाषा में हैं अत: ‘इस्लाम’-सम्प्रदाय के लोग उसे ‘हिन्दू’-सम्प्रदाय के साथ जोड़कर देखते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। कोई भी भाषा किसी की निजी सम्पदा नहीं होती। उस स्तुति में वैभव-सम्पन्न उस धरती माँ के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति की गयी है और उस वसुन्धरा के वैभवमय सौन्दर्य-सम्पन्नता का आख्यान किया गया है, जिसकी गोद में हम सभी बिना किसी भेद-भाव के पलते और बढ़ते आये हैं; जिसमें उपजे अन्न से हमारा शारीरिक और मानसिक पोषण होता रहा है। हम सबकी धरती माता जाति-धर्म, वर्ग-पन्थ, सम्प्रदाय आदिक वर्गीकरण से परे है। ऐसे में तो हम सभी को उन्मुक्त भाव के साथ संकीर्णताओं की समस्त वर्ज्य दीवारों को ध्वस्त करते हुए, समवेत स्वर में ‘अनेकता में एकता’ को चतुर्दिक् ध्वनित करना चाहिए।

प्रश्न है, इस्लाम-सम्प्रदाय का प्रबुद्व वर्ग इस सत्य से अवगत नहीं है :– अरबी-फ़ारसी के बहुसंख्यक शब्द ‘संस्कृत’ से प्रभावित हैं? तो क्या वे लोग अरबी-फ़ारसी शब्दों के प्रयोग को अस्वीकार करेंगे? भाव, भाषाजन्य चिन्तन-अनुचिन्तन, वर्णनादिक किसी भी सम्प्रदाय की सीमा से नितान्त परे है। हम सभी ‘भारत माता’ की सन्तान हैं और हमें अपनी इस समुपलब्धि पर महत् गर्व करना चाहिए; क्योंकि “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”। “सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा”… और हाँ, हमें इस सत्य को अङ्गीकार करना होगा, “कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।” आमीन।

आइए! हम साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से विमुक्त रहकर अपनी ‘मातृभूमि’ को नमन करें :——
“वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां
मलयज शीतलां
शस्य श्यामलां मातरम्।
वन्दे मातरम्।।
शुभ्र ज्योत्स्ना
पुलकित यामिनीं
फुल्ल कुसुमित
द्रुमदल शोभिनीं
सुहासिनीं
सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम्।
वन्दे मातरम्।।”

हम सभी को इतना ही गायन करना है। ‘काफ़िर’ घोषित किये जाने और ‘काफ़िर’ घोषित करनेवाले लोग से मेरा दो-टूक प्रश्न है :— यहाँ किसी सम्प्रदाय-विशेष के किस देवी-देवता का नाम आया है?

किसी को भी किसी के द्वारा भ्रमित नहीं होना है। आप सभी विवेकशील हैं; बिना किसी के प्रभाव में आये उचित और तर्कसंगत निर्णय करने की क्षमता स्वयं में विकसित करने की सामर्थ्य अर्जित करें।

आज जिस तरह से लोकतन्त्र की प्रभावकारी धुरी विपक्षी दलों को समाप्त कर, ‘स्वयंभू चक्रवर्ती सम्राट कहलाने का मोह परिव्याप्त हो गया है, उससे देश में निरंकुशता का साम्राज्य व्याप्त होता दिख रहा है। यह तो “सबका साथ-सबका विकास” के व्यावहारिक पक्ष के साथ एक प्रकार का विश्वासघात है। देश के विपक्षी दल सत्तासीन दल की लोकविरोधी गतिविधियों के विरुद्ध आवाज़ उठाते हैं; धरना-प्रदर्शन-आन्दोलन करते हैं; परन्तु वर्तमान सरकारसंचालकों को यह रास नहीं आ रहा है कि उसकी लोकघातक नीतियों और निर्णयों पर कोई अँगुली उठाये। यहाँ तक कि यदि कोई बुद्धिजीवी ‘अमिव्यक्ति की स्वतन्त्रता’ के अन्तर्गत समीचीन और सार्थक अभिव्यक्ति करता है तो उसे देशद्रोह के आरोप में क़ैदकर लिया जाता है। क्या यही हमारी वैधानिक स्वतन्त्रता है?

सरकारसंचालकों को जनमत का सम्मान करते हुए सभी के प्रति समानता का आचरण करना होगा, तभी हमारी स्वतन्त्रता की उपलब्धि का औचित्य सिद्ध होता है।
जनगणमन अक्षुण्ण रहे।

जय भारतभूमि।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १४ अगस्त, २०२० ईसवी)