‘तीन तलाक़’ को ‘क़ानून’ न बनने देने के लिए देश की सरकार पूरी तरह से ज़िम्मेदार दिखती!

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


‘तीन तलाक़’-जैसे विवादास्पद और ‘संवेदनशील’ विषय पर देश के शीर्षस्थ न्यायालय उच्चतम न्यायालय की संविधानपीठ के न्यायाधीशों ने बहुमत से यह माना था कि तीन तलाक़ का प्रयोग जिस तरह से किया जा रहा है, वह असंवैधानिक है। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों ने बहुमत से वर्तमान केन्द्र-शासन को आदेश किया था कि वह तीन माह के अन्दर इस पर अधिनियम/क़ानून बनाये परन्तु केन्द्र-शासन ने उच्चतम न्यायालय के आदेश की उपेक्षा की थी। देश की सरकार के लिए ‘संसद् का मानसूत्र-सत्र’ की कोई उपयोगिता नहीं थी और देश के विपक्षी दलों के नेता भी निष्क्रिय दिख रहे थे। वे सरकार को उपयुक्त समय पर ‘मानसून-सत्र’ आरम्भ करने के लिए दबाव डाल सकते थे परन्तु अपनी आँखों पर पट्टी बाँधकर तत्कालीन चुनावी प्रचार के लिए अपनी-अपनी रणनीति बनाने में लगे थे। इस दृष्टि से देश की प्रमुख राष्ट्रीय प्रतिपक्षी दल ‘काँग्रेस’ की भी घटिया भूमिका रही थी।
उन दिनों अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार के चुनाव होनेवाले थे। देश की सरकार को अपनी विरासत समझकर भूल करनेवाले राजनेता चुनावी रणनीति में लग गये थे और जब हाल ही में गुजरात के विधानसभा के चुनाव हुए थे तब केन्द्र-सरकार के कई प्रमुख केन्द्रीय मन्त्री अपने गुजराती प्रधानमन्त्री की ‘नाक बचाने’ के लिए अपने-अपने मूल कर्त्तव्य से रहित होकर, गुजरात में जमे रहे। इसप्रकार केन्द्र-सरकार ने सारे तन्त्रों और चेहरों का अनेक रूपों में विधिवत् दुरुपयोग किया गया था; कोई बोलनेवाला नहीं था; ‘राष्ट्रद्रोही’ घोषित न कर दिया जाये, इस विचार के आते ही देश का जनसामान्य सशंकित था और आज भी है। चुनाव आचार-संहिता को तार-तार करते हुए, प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने कहीं ‘रोड-शो’ किया था; कहीं लोकोपयोगी उद्घाटन-लोकार्पण किया था; कहीं ‘सी प्लेन’ में बैठकर ‘गुजरात विकास मॉडल’ प्रस्तुत किया था। उसी क्रम में तीन तलाक़ पर क़ानून बनाने की घोषणा कर दी थी क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने गुजरात-विधानसभा में मुसलिम महिलाओं का मत अर्जित करने के लिए ‘तीन तलाक़’ पर आसन्न शीतकालीन संसद्-सत्र में क़ानून बनाने की घोषणा कर दी थी।
यहाँ यह गम्भीरतापूर्वक समझने की आवश्यकता है कि संसद् के दो सदन हैं : लोक सभा और राज्य सभा। लोकसभा में ‘राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन’ का बहुमत है परन्तु राज्य सभा में वह अल्प मत में है। इस दृष्टि से ‘राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन’ वाली सरकार के शासक और सिपहसालार इस सत्य से अवगत थे कि अन्तर्मन्त्री समूह-द्वारा तैयार कराये गये ‘तीन तलाक़’ विधेयक को मनचाहे ढंग से क़ानून का रूप देना सम्भव ही नहीं है क्योंकि राज्यसभा से उस विधेयक को अपने मूल रूप में पारित करा पाना, “लोहे का चना चबाना” जैसा ही है, इसीलिए केन्द्र-सरकार ने ‘अल्पसंख्यक’ महिलाओं की सहानुभूति अर्जित करने के लिए ‘तीन तलाक़’ का विधेयक सदन में प्रस्तुत करने का निर्णय किया था। सच तो यह है कि धुर मुसलिम-विरोधी दल भारतीय जनता पार्टी ‘तीन तलाक़’ को क़ानून बनवाने के प्रति ईमानदार नहीं है। यदि भा०ज०पा० के शीर्ष नेता सचमुच तीन तलाक़ को क़ानून का रूप देना चाहते थे तो सबसे पहले सर्वदलीय बैठक का आयोजन करते; सभी मुसलिम संघटनों के प्रमुख नेताओं को बुलाते; उन मुसलिम महिलाओं को बुलाते, जिनके ‘वाद’ (मुक़द्दमा) के परिणामस्वरूप उच्चतम न्यायालय की संविधानपीठ ने केन्द्र-सरकार को ‘तीन तलाक़’ पर क़ानून बनाने का आदेश किया था। इसप्रकार विभिन्न विवादास्पद बिन्दुओं पर सभी के साथ स्वस्थ वातावरण में विधिवत् संवाद किया जाता और सर्वसम्मति अथवा बहुमत के आधार पर उस विधेयक को पारित कराया जाता। ऐसे में, बहुत हद तक सम्भव था कि ‘तीन तलाक़’ का विधेयक इसी सत्र में पारित होकर क़ानून बनाने की अन्तिम प्रक्रिया से जुड़ जाता।
सरकार अपनी चिर-परिचित स्वेच्छाचारिता का परिचय देते हुए, जिस प्रारूप में ‘तीन तलाक़’ विधेयक को राज्य सभा मे पारित करा लेना चाहती थी, वह कहीं से सम्भव था ही नहीं। यही कारण है कि आज (४ जनवरी, २०१७ ई०) शीतकालीन संसद्-सत्र में राज्य सभा सदन से ‘तीन तलाक़’ का विधेयक पारित नहीं हो सका। इससे वर्तमान सरकार’ का “फूट डालो और राजनीति करो” की अलोकतान्त्रिक नीति और नीयत का पापपूरित घड़ा अब फूट चुका है।
उल्लेखनीय है कि विपक्ष के नेता और मुसलिम संघटनों के नेतागण ने एक स्वर में ‘तीन तलाक़’ को ग़लत माना था। वे उस पर बहस कराना चाहते थे; उसके दण्ड-प्रविधानों में परिवर्त्तन भी चाहते थे; संशोधन के उद्देश्य से उस विधेयक को ‘विशेषज्ञ-समिति’ के पास भेजने की माँग कर रहे थे, जबकि सरकार चलानेवाले सशर्त्त बहस कराना चाहते थे और बहस के बाद पारित करा लेना चाहते थे, जो कि सम्भव ही नहीं था।
पक्ष-प्रतिपक्ष अपने-अपने तर्कों के साथ अड़े हुए हैं, जिनसे ज़ाहिर होने लगा है कि ‘तीन तलाक़’ अब ‘त्रिशंंकु’ की भाँति लोक सभा और राज्य सभा के बीच झूलता रहेगा।