मेरे आशू भैया तो बहुत सीधे, सज्जन, सरल और आमजन को समर्पित हुआ करते थे !

सुधीर अवस्थी ‘परदेशी’-


आशीष सिंह आशू मल्लांवा से भाजपा के विधायक और पत्रकारों के बीच आपसी झंझट की खबरें फेसबुक पर पढ़ीं तो चौंक गया। किन परिस्थितियों में यह हालात पैदा हुए मुझे नहीं पता लेकिन जहां तक मैं जानता हूं इस तरह का व्यवहार पहले कभी नहीं रहा।
सन् 1996 से 2000 तक पीबीआर इण्टर कालेज का छात्र रहा हूं। जिसमें 1996-1999 तक आशू भैया से मेरा सीधा सम्पर्क रहा। इनके पिताजी श्री शिवराज सिंह जो कि प्रधानाचार्य थे। उनकी अनुशासनप्रिय कार्यशैली ने कभी अपने पराए का भेद नहीं किया। हां एक बात में कोई सन्देह नहीं कि श्री सिंह साहब कट्टर संघी रहे।
आशू भैया के छोटे भाई गौरव से कभी कबार तू-तू में-में हो जाती थी वह महसूस करते थे कि हम प्रिंसिपल के बेटे हैं। लेकिन आशू भैया एक साधारण छात्र की भांति सबसे व्यवहार करते थे। किसी से कोई अभद्रता का मामला संज्ञान में नहीं रहा। जब इनके पिताजी घर से बाहर होते थे तो गौरव अक्सर कर मुझे लिवा ले जाते और इनके घर ही अपनी रात गुजरती थी।
मुझे याद है कि जब लखनऊ में संघ के रज्जू भैया आए तो वहां लन्च पैकेट लेकर जाना था। मैं बहुत परेशान था तो आशू भैया ने कहा कि जो व्यवस्था हो जाए ठीक है। बहुत परेशान होने की जरूरत नहीं। जबकि और बहुत उलझन पैदा कर रहे थे। जिसमें हम अपनी रिश्तेदारी से लन्च पैकेट बनवाकर ले गए।
शिखा बांधने और चन्दन लगाने को लेकर मुझे कई बार स्कूल के छात्रों के बीच में मजाक बनना पड़ा। शिक्षक भी इस तरह के पाखण्ड को नापसन्द करते थे। हमने प्रिंसिपल साहब से कहा नाम काट दीजिए लेकिन हम अपने विचार परिवार के संस्कार को नहीं बदल सकता। संघ की शाखा में भी लोगों ने अगर कुछ मेरे बारे में कहा तो आशू भैया ने मेरा सहयोग किया।
आशू भैया के संस्कारों और विचारों को बड़ी करीबी से देखा है। आज अगर उनकी इस धरोहर पर कोई उंगली उठा रहा है तो स्वाभाविक है कि जो मैंने देखा समझा और महसूस किया उसे लिखने में कोई हिचकिचाहट नहीं गर्व महसूस कर रहा हूं।
सन् 1999 के बाद फिर कभी नहीं देखा 18 साल गुजरने के बाद भी मुलाकात व बात नहीं हुई। फेसबुक पर मित्रता जरूर हो गई। वह हमारे बारे में क्यों जानें और जानकर क्या करेगें ? उनके नाम पर रौब भले ही ना गांठते हों लेकिन यह भरोसा है कि वह हमारे साथ पहले की तरह ही खड़े नजर आएगें।
इस संस्मरण को लिखने का मतलब तेल लगाने वाली पत्रकारिता या उनका प्यार-दुलार पाना नहीं बल्कि उनके अतीत की याद दिलाना है कि कहीं आप रास्ता तो नहीं भटक रहे ? उनको भी आइना दिखा रहा हूं जो लोग हांथ पैर धोकर विधायक के पीछे पड़े हुए हैं।  मेरे आशू भैया तो बहुत सीधे, सज्जन, सरल और आमजन को समर्पित हुआ करते थे अब आप बड़े लोगों के हुए तो क्या इतना बड़ा बदलाव हो गया ? ऐसे थे अब जनता ने समाज ने इनको परिवर्तित किया तो वह जाने !