संस्कृत की एक सूक्ति है- ‘चरन्ति वसुधां कृत्स्नां वावदूका बहुश्रुताः।’ यानी बुद्धिमान और वाक कुशल लोग सारी पृथ्वी घूमते हैं। भारतवर्ष पृथ्वी के सबसे सुंदर देशों में से एक है और इस खूबसूरत देश को घूमने का सबसे सस्ता, सुगम और सुलभ साधन भारतीय रेल है।
कहते हैं कि दुनिया एक किताब है और जो यात्रा नहीं करते वे किताब का केवल एक पन्ना पढ़ते हैं। किसी किताब को पढ़ने से हम जितना सीखते हैं, उसका हजार गुना हम यात्रा करने से सीखते हैं।
वायुसेना की 20 वर्ष सेवा करने के कारण मैंने देश के लगभग हर भाग की यात्रा रेलगाड़ी से की है। रेलगाड़ी से मैं उत्तर में जम्मू तवी तक गया हूँ, तो दक्षिण में चेन्नई तक की यात्रा की है। पश्चिम में मुंबई तक गया हूँ और उत्तर पूर्व में गुवाहाटी तक की यात्रा की है। रेलयात्रा के दौरान उत्तर भारत में मैंने लखनऊ की रेवड़ी, उन्नाव का समोसा और उरई के कालाजाम खाये हैं। पूरब में कोलकाता का झाल-मुड़ी, मिर्जापुर की रामप्यारी चाय, पश्चिम में महाराष्ट्र की पावभाजी और दक्षिण में बैंगलौर का दिलखुश भी खाया है।
सुनते आए हैं कि सबसे अच्छी यात्राएं, सबसे अच्छे प्यार की तरह होती हैं जो हृदय में हमेशा के लिए बस जाती हैं। उस पर भी ‘पहली रेल यात्रा’ ‘पहले प्यार’ की तरह होती है, जिसकी खुशबू ताउम्र भुलाने से भी नहीं भूलती।
मेरी पहली रेल यात्रा:-
मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में हुआ है। मेरे गांव से रेलवे लाइन तीन किलोमीटर दूर थी और ‘लालगंज बैसवारा’ का रेलवे स्टेशन 6 किलोमीटर दूर था। कोई रेलगाड़ी जब कानपुर से लालगंज आते या जाते हुए जोर से सीटी बजाती तो गांव तक उसकी आवाज बिल्कुल साफ सुनाई देती थी। गाँव के लोग रेलगाड़ी की सीटी की आवाज सुनकर समय का अंदाजा लगाया करते थे। कोई कहता यह शाम छह बजे वाली ‘दिल्ली एक्सप्रेस’ की सीटी है और कभी कोई रेलगाड़ी की सीटी सुनकर बोल पड़ता कि यह तो सुबह सात बजे वाली पैसेंजर रेलगाड़ी की आवाज है।
हम कभी गंगा स्नान करने या किसी रिश्तेदार के यहां जाते तो रेलगाड़ी को पास से गुजरते हुए भी देख लेते थे। लेकिन रेलगाड़ी के अंदर बैठने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला था। मेरे बालमन में रेलगाड़ी को लेकर तमाम तरह के प्रश्न उमड़ते-घुमड़ते रहते थे कि रेलगाड़ी के अंदर लोग कैसे बैठते होंगे? सीट कैसी रहती होगी? इतनी बड़ी गाड़ी चलती कैसी होगी? एक ही ड्राइवर रेलगाड़ी चलाता होगा या कई ड्राइवर होंगे? इससे जो धुंआ निकलता है, वह कहाँ से आता है?
मैं ईश्वर से प्रार्थना करता कि मुझे भी एक दिन रेलगाड़ी से यात्रा करने का अवसर मिले और भगवान ने मेरी प्रार्थना कुछ देर से ही सही लेकिन सुन ली।
सन 1988 की बात है। तब मैं 10-11 साल का था। मेरे नाना मुंबई में रहते थे, उन्होंने पापा को मुंबई घूमने के लिए बुलाया था। पापा ने मुझसे पूछा कि तुम भी साथ चलोगे क्या? मैं तो रेलगाड़ी में बैठने के लिए कब से तैयार था। ‘अंधा क्या चाहे, दो आंख”। मैंने तुरंत ही हामी भर दी।
पापा ने कानपुर से पुष्पक एक्सप्रेस में रिजर्वेशन कराया था। यह रेलगाड़ी रात के लगभग नौ बजे कानपुर से चलती थी। इसलिए पहले हमें ऊंचाहार एक्सप्रेस से कानपुर जाना था, उसके बाद कानपुर से पुष्पक एक्सप्रेस पकड़नी थी।
अब मुंबई जाने की तैयारी शुरू हो चुकी थी। मेरे लिए दो जोड़ी नए कपड़े सिलाए गए। पापा ने भी अपने लिए नया पैंट-शर्ट सिलवाया। रास्ते में ले जाने के लिए एक बैग भी खरीदा गया। अजिया (दादी) ने पेड़ा और एक बड़े डिब्बे में घी भरकर बैग में रख दिया गया।
जिस दिन हमें जाना था उस दिन मारे खुशी के मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। रास्ते में खाने के लिए अम्मा ने पूड़ी–सब्जी बनाई। भोजन करने के पश्चात एक चम्मच दही खाकर और परिवार की सबसे छोटी कन्या के पैर छूकर हम घर से निकल पड़े। बाबा ने मुझे और पापा को बैलगाड़ी में बिठाकर लालगंज रेलवे स्टेशन छोड़ा। वहां पहली बार मैंने टिकट की खिड़की, रेलवे प्लेटफार्म बिल्कुल पास से देखा। कुछ चाय, मूंगफली, रेवड़ी बेचने वाले अजीब स्वर में आवाज लगा रहे थे।
कुछ ही देर बाद ऊंचाहार एक्सप्रेस रेलगाड़ी आ गई। मैं और पापा दोनों जनरल डिब्बे में घुस गए। डिब्बे में भीड़ थी लेकिन फिर भी हमें बैठने की जगह मिल गई। मैं खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर में रेलगाड़ी ने खूब जोर से सीटी बजाई और छुक-छुक करके सरकने लगी। जल्दी ही रेलगाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली तथा लालगंज रेलवे स्टेशन और प्लेटफार्म बहुत पीछे छूट गया।
अब मैं खिड़की से बाहर देख रहा था। तमाम पेड़-पौधे, जानवर, तालाब आदि तेजी से पीछे छूटते जा रहे थे। लगभग दो घंटे के सफर के बाद उन्नाव से आगे जाकर हम गंगा नदी के पुल के ऊपर से गुजर रहे थे। रेलगाड़ी से कुछ लोग गंगा नदी में पैसे डालकर मां गंगा को प्रणाम कर रहे थे। मैंने भी हाथ जोड़कर मां गंगा को प्रणाम किया।
मेरे गांव में उस समय तक बिजली नहीं आई थी। इसलिए रेलगाड़ी के अंदर लाइट और पंखा देख कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ। कुछ अंधेरा हुआ तो किसी ने बिजली का स्विच ऑन कर दिया और आसपास की सभी सीटें रोशनी से नहा उठी। मुझे बल्ब की पीली रोशनी किसी चमत्कार से कम नहीं लग रही थी।
थोड़ी देर बाद हम कानपुर रेलवे स्टेशन पहुंच गए। वहां पर हमने अपना सामान उतारा और लखनऊ से आकर मुंबई जाने वाली पुष्पक एक्सप्रेस की प्रतीक्षा करने लगे।
कानपुर का रेलवे स्टेशन लालगंज से काफी बड़ा था। वहां पर दुकानें भी अधिक थी। खाने-पीने के तमाम तरह के सामान दिख रहे थे। कहीं समोसा तो कहीं बिस्किट बिक रहा था। पुस्तकों की भी कुछ दुकानें थी। वहां पर लाउडस्पीकर से होती उद्घोषणा मुझे अति प्रिय लगी। यह मेरे लिए ‘आकाशवाणी’ सरीखा अनोखा अनुभव था।
कानपुर रेलवे स्टेशन पर भीड़ भी अपेक्षाकृत अधिक थी। थोड़ी देर बाद पुष्पक एक्सप्रेस आ गई। हमारा रिजर्वेशन स्लीपर क्लास में था। उस डिब्बे में उतनी भीड़ नहीं थी, जितनी लालगंज से आते समय ऊंचाहार एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में थी। अपना सामान सीट के नीचे रखकर हम लोग अपनी सीट पर बैठ गए। कुछ देर तक मैं और पापा कभी आपस में तो कभी सहयात्रियों से बात करते रहे। फिर पापा ने बैग से टिफिन निकाला। हमने घर से लाया हुआ भोजन किया। कुछ देर बाद मुझे नींद आने लगी। पापा ने एक चादर सीट पर बिछाकर और एक चादर मेरे सिर के नीचे रखकर मुझे सुला दिया।
मैं सुबह उठा तो भोपाल से आगे निकल चुका था। तब तक पापा भी जाग चुके थे। मैं शौचालय में जाकर नित्यकर्म से निवृत्त हुआ और वापस अपनी सीट पर आ गया। कुछ ही देर में एक चाय वाला– “चाआआईए- चाआआईए” बोलते हुए आया। पापा ने दो चाय ली। हम दोनों ने बिस्किट के साथ चाय पी और फिर मैं खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगा।
मेरे लिए हर क्षण आनंदकारी था। बाहर के सारे दृश्य मेरे लिए बिल्कुल नए थे। कुछ और आगे चलने पर सुरंग आ गई और चारों तरफ अंधेरा छा गया। केवल रेलगाड़ी के अंदर की लाइट जल रही थी। कुछ बच्चे तो भय से चिल्लाने भी लगे थे। मैं भी कुछ डर सा गया था लेकिन पापा ने मुझे अपने सीने से लगा लिया और मेरा डर जाता रहा।
भूसावल स्टेशन पर पापा ने मेरे लिए केले खरीदे। भूसावल के केले हमारे लालगंज में मिलने वाले केलों से अधिक स्वादिष्ट थे। मैंने बड़े चाव से केले खाए। फिर नासिक में पापा ने अंगूर खरीदे जो बहुत ही मीठे थे। रात तक हम लोग मुंबई पहुंच चुके थे। स्टेशन पर नाना मेरा इंतजार कर रहे थे। हम दोनों उनके साथ टैक्सी में बैठकर उनके घर सांताक्रुज पहुंच गए।
यह मेरे जीवन की पहली रेल यात्रा थी। जिसमें मैंने जनरल और स्लीपर दोनों श्रेणियों में यात्रा की। इसके बाद मैंने अपने जीवन में बहुत सी रेल यात्राएं की हैं। रेलगाड़ी के शयनयान, वातानुकूलित-3 टायर और वातानुकूलित-2 टायर में भी यात्रा की है। भारतीय वायुसेना के वायुयान से यात्रा की है और सिविल वायुयान से भी यात्रा की है। लेकिन रेलगाड़ी की इस पहली यात्रा का रोमांच मेरे जीवन का अविस्मरणीय अनुभव है जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगा।
–विनय सिंह बैस
ग्राम-बरी, पोस्ट-मेरूई, जनपद-रायबरेली (उत्तर प्रदेश)