कई दिनों से यह प्रश्न मन को मथता रहा था कि ‘कोहबर की शर्त’ की कलेजा चाक कर देने वाली मूल कहानी के साथ राजश्री प्रोडक्शन वालों ने इतनी गंभीर छेड़छाड़ क्यों की ? जिस मूल कहानी को पढ़ने के बाद पाठक महीनों तक बिन पानी के मछली की तरह छटपटाता रहता है, लगभग अवसाद में चला जाता है। जिसके पात्र और उनकी पीड़ा इतनी मर्मान्तक है कि वे पाठक के मन मस्तिष्क में अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं। उस कालजयी कथानक को साधारण प्रेम कहानी में बदलकर फ़िल्म निर्माताओं ने ‘नदिया के पार’ और ‘हम आपके हैं कौन’ जैसी सुखांत और रोमांटिक फिल्में क्यों बना दी?
वस्तुतः उपन्यास में जहां से वास्तविक ट्रेजेडी शुरू होती है, वहीं से राजश्री वालों ने कथानक को पूरी तरह बदल दिया। उन्होंने मूल उपन्यास की सारी पीड़ा, समस्त वेदना को निचोड़कर पूरी तरह बाहर कर दिया और केवल प्यार, मनुहार, चुहल, हंसी-मजाक को फ़िल्म में रख लिया। कांटे सारे निकाल बाहर किये, बस फूल रख लिया।
सुनते हैं कि फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास ‘मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम’ पर बनी फिल्म ‘तीसरी कसम’ का कथानक बदले जाने पर, उसे जबरन सुखांत किये जाने पर वह निर्माताओं पर बुरी तरह नाराज हो गए थे और अपनी स्वीकृति वापस ले लेने की धमकी तक दे डाली थी । जब उनके उपन्यास के साथ न्याय हुआ, कहानी पर आधारित फिल्म बनी, तभी उन्होंने सहमति दी।
1982 में ‘नदिया के पार’ फिल्म बनी और 1989 में केशव प्रसाद मिश्र जी का देहांत हुआ। यानि इस फिल्म के बनते समय वह जीवित थे। मुझे आश्चर्य होता है कि उन्होंने कथानक में इतने बड़े परिवर्तन का विरोध क्यों नहीं किया? वह तत्कालीन इलाहाबाद के AG ऑफिस में ऑडिटर थे यानि पैसों की भी उन्हें कोई खास तंगी नहीं थी, फिर उन्होंने मात्र 500/- रुपये के बदले अपने उपन्यास के मूल कथानक और उसके पात्रों के साथ हुए घोर अन्याय का विरोध क्यों नहीं किया??
ऐसा भी नहीं कि भारतवर्ष में उपन्यास पर आधारित ट्रेजेडी फिल्में बनी और सफल नहीं हुई हैं। देवदास फ़िल्म उदाहरण है कि ट्रेजेडी फिल्में भी अगर पूरी लगन, मेहनत और ईमानदारी के साथ बनाई जाएं तो खूब सफल होती हैं बल्कि बार-बार सफल होती हैं। तभी तो देवदास के इतने रिमेक आये और सारे ब्लॉकबस्टर साबित हुए।
अधेड़ उम्र का मेरा परिपक्व मन कहता है कि दुःख मनुष्य को मांजता है, विरेचन मनुष्य को निष्पाप करता है। दुःखान्त कहानियां मनुष्य पर स्थायी, अमिट प्रभाव छोड़ती हैं। उनकी कहानी उसे महीनों तक सालती रहती है। मनुष्य को जगत की निःसारता समझ आने लगती है कि यहां सब कुछ नश्वर है- मनुष्य भी और संबंध भी। जीवन का अंतिम सत्य पतित पावनी मां गंगा की गोद में शरण पाना ही है।
लेकिन जब किशोर मन से सोचता हूँ तो लगता है कि राजश्री प्रोडक्शन वालों ने सुखांत फिल्म बनाकर ठीक ही किया । क्योंकि दुःखान्त महाकाव्य और नाटक पश्चिमी देशों की परंपरा रही है, हमारी नहीं।
भारतीय मन मूलतः सुखांत की गाहक है। हम पापी से प्रतिशोध लेने, अत्याचारी का अंत करने और पावन प्रेम की जीत देखने के आदी हैं। शायद इसीलिए हमारे सारे महाकाव्य, अधिकांश नाटक और कहानियां सुखांत हैं।
फिर मुझे यह भी लगता है कि अगर राजश्री वाले अपनी फिल्मों में ‘कोहबर की शर्त’ का कथानक हूबहू उतार देते तो उन किशोरों का जिनके मन में अभी-अभी प्यार की कोमल कोंपलें फूटी है, जिन्होंने अपने प्रेमी के साथ जीने मरने की कसमें खाई हैं; उनका प्यार से विश्वास उठ जाता। उन युवाओं का जो बड़े भाई को पिता समान मानते हैं, उनकी हर इच्छा को आदेश मानते हैं; उनका संबंधों से विश्वास उठ जाता। छोटे भाई को अपने बेटे जैसा दुलार करने वाले, उनकी हर छोटी- बड़ी जरूरत का ख्याल रखने वाले बड़े भाइयों का त्याग से विश्वास उठ जाता। मनचाहा वर मिलने पर ‘रूपा सत्ती’ के चबूतरे में पियरी चढ़ाने की मनौती मान चुकी तमाम गुंजाओं का सती की महिमा से विश्वास उठ जाता।
‘नदिया के पार’ फ़िल्म आने के बाद उत्तर भारत विशेषकर पूर्वांचल और बिहार में हज़ारों मां-बाप ने अपने बच्चों के नाम गुंजा और चंदन रखे। क्योंकि यह दोनों पवित्र प्रेम और उदात्त त्याग के प्रतीक बन गए थे। उनका प्रेम तमाम युवाओं के लिए आदर्श प्रेम और प्रेरणास्रोत बन गया था। वहीं इसके उलट देखिए कि शायद ही कोई अपने बच्चे का नाम ‘देवदास’ रखता हो क्योंकि देवदास का प्रेम अभिशप्त प्रेम का प्रतीक बन गया है। कोई भी प्रेमी जोड़ा अपने प्रेम का ‘नदिया के पार’ जैसा अंत देखना चाहता है, देवदास जैसा कतई नहीं।
गुंजा को अगर चंदन न मिलता , तो प्रेमियों की बात छोड़िए, आम जनमानस का भी सच्चे और पवित्र प्यार की जीत, त्याग के सुपरिणाम, नियति और भगवान से विश्वास उठ जाता।
(आशा विनय सिंह बैस)
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