सई नदी की करुण कथा : पौराणिक और ऐतिहासिक नदी मर रही है

प्रेस, पत्रकार एवं प्रेस-संघटन एकजुटता का प्रदर्शन करने से पीछे क्यों?

‘राष्ट्रीय प्रेस-दिवस पर हमारी विशेष प्रस्तुति

भारत मे प्राय: प्रत्येक दिन कोई-न-कोई दिवस आयोजित होता रहा है; परन्तु उसकी मान्यता और उपयोगिता-महत्ता से अधिकतर जन अनभिज्ञ रहे हैं। इसका मूल कारण है कि वे लोग यहीं तक सीमित रह जाते हैं कि ‘परम्परा है, चलो मना लेते हैं’, जबकि ऐसा सोच (‘ऐसी सोच’ अशुद्ध है; क्योंकि ‘सोच’ पुंल्लिंग का शब्द है।)

वही स्थिति १६ नवम्बर को आयोजित किये जानेवाले ‘राष्ट्रीय प्रेस-दिवस (दिनांक) का भी है। यहाँ दो बातें हैं :– पहली बात, अधिकतर पत्रकार यही नहीं जानते कि ‘राष्ट्रीय प्रेस-दिवस’ कब है तथा दूसरी बात, जो कुछ सजग पत्रकार हैं, उनमे से यह तो जानते हैं कि ‘राष्ट्रीय प्रेस-दिवस’ कब है; किन्तु १६ नवम्बर को ही उक्त दिवस का आयोजन क्यों किया जाता है, इसे जाननेवाले कुछ अँगुलियों के पोरों पर ही हैं।

आपने देखा होगा कि देशभर मे ऐसे लोग की संख्या करोड़ों मे हैं, जो अपने वाहनो पर ‘प्रेस’ लिखवाकर सीना तानकर चलते हैं। आप उनमे से किसी से भी यह प्रश्न करें :– भाई साहिब! अपने अपने वाहन पर ‘प्रेस’ क्यों लगवाये हैं? मेरा दावा है कि शायद ही वे सही उत्तर बता सकें। वे यही कहेंगे :– मै फलाँ समाचारपत्र का पत्रकार हूँ। वहीं एक स्थिति अत्यन्त शोचनीय है कि जिन लोग का समाचारपत्र-पत्रिकाओं के साथ दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है, वे लोग अपने वाहनो पर ‘प्रेस’ लिखवाकर सीना तानकर अपने वाहनो को फर्राटे भरते हुए सड़कों पर घुमाते रहते हैं। जो मुद्रणालय ‘जॉब वर्क’ करते हैं और जो किसी भी समाचारपत्र-पत्रिका-कार्यालय मे सम्पादकीय कर्म नहीं करते, वे लोग भी अपने वाहनो पर ‘प्रेस’ लगवाकर अपना उल्लू सीधा करते आ रहे हैं।

आप हमारे इस तथ्यपूर्ण टिप्पणी मे ऐसे संदर्भों को समझेंगे, जिनसे आप सभी अनभिज्ञ रहे हैं।

हमारे देश मे बहुसंख्य सुशिक्षितजन ‘प्रेस-दिवस’ और ‘पत्रकारिता-दिवस’ को एक ही मानते आ रहे हैं और समझते भी, जो कि पूर्णत: अनुपयुक्त है। एक अन्य सुशिक्षित-वर्ग ऐसा है, जो दोनो दिवस (‘दिवसों’ अशुद्ध है।) को भिन्न-भिन्न मानता आ रहा है; परन्तु उनके उद्देश्य और उनकी अवधारणा से अनभिज्ञ रहता है। ऐसे पढ़े-लिखे लोग की भी संख्या बड़ी है, जो ‘प्रेस-दिवस’ को ‘छपाई करनेवाले यन्त्र’ (मुद्रक) के साथ जोड़कर देखते आ रहे हैं। हाँ, गिने-चुने जानकार हैं, जो ‘प्रेस-दिवस’ को समझते हैं।

अब आइए! हम ‘प्रेस-दिवस’ पर केन्द्रित हो लें।

अपने देश (भारत) मे प्रतिवर्ष १६ नवम्बर को ‘प्रेसदिवस’/’प्रेस-दिवस’ (‘प्रेस दिवस’ निरर्थक शब्द है।) का आयोजन किया जाता है। अब प्रश्न है, इस ‘प्रेस-दिवस’ के आयोजन का औचित्य क्या है? उत्तर है, औचित्य है। इतना ही नहीं, हमारे देश के बहुसंख्य पत्रकारवृन्द, जो अपने वाहनो पर ‘प्रेस’ लगाकर अपना कर्त्तव्य करते आ रहे हैं, उनमे से कदाचित् किसी को बोध हो कि वे ‘प्रेस’ अथवा ‘मीडिया’ क्यों लिखवा रहे हैं और कोई शब्द क्यों नहीं। हम इसे भी बतायें और समझायेंगे।

देश की राजधानी ‘दिल्ली’ मे एक स्वायत्तशासी (‘स्वायत्तशाषी’ अशुद्ध है।) विधिक संघटन (‘संगठन’ अशुद्ध है।) है, जिसका नाम ‘भारतीय प्रेस परिषद्’ (‘परिषद’ अशुद्ध है।) (Press Council of India) है। उसका मुख्यालय भी ‘दिल्ली’ मे ही है। वह परिषद् देश के पत्रकारों के हित (‘हितों’ अशुद्ध शब्द है।) मे योजनाएँ बनाती है; पत्रकारों की स्थिति सुदृढ़ करती है और उनका विधिक हितसंपोषण भी। (‘परिषद्’ स्त्रीलिंग-शब्द है।)

ऐसे पत्रकारीय संघटन की स्थापना ४ जुलाई, १९६६ ईसवी को दिल्ली मे की गयी थी; किन्तु वह १६ नवम्बर, १९६६ ई० से क्रियाशील हुई थी। यही कारण है कि जिस तिथि (१६ नवम्बर) से ‘भारतीय प्रेस परिषद्’ ने अपने कर्त्तव्य (‘कर्तव्य’ अशुद्ध है।) का बहुविधि निर्वहण करना आरम्भ कर दिया था, उसी तिथि को ‘राष्ट्रीय प्रेस-दिवस’ घोषित कर दिया गया था।

जिस भाँति ‘एक कुत्ता’ अपने संरक्षक के हित के प्रति स्वामिभक्त (‘स्वामीभक्त’ अशुद्ध है।) और सजग बना रहता है उसी भाँति प्रेस भी अपने पत्रकारों के हित के प्रति जागरूक और सतर्क रहता है और पत्रकारों को नैतिकता के साथ दायित्व-निर्वहण करने के लिए प्रेरित भी करता है। (यह अलग विषय है और शोचनीय (‘सोचनीय’ अशुद्ध है।) भी कि ‘भारतीय प्रेस परिषद्’ अपने मूल कर्त्तव्य से च्युत (पृथक्) हो चुकी है।) यही कारण है कि ‘प्रेस’ को ‘वाच डॉग’ और ‘प्रेस परिषद्’ को ‘मॉरल/मोराल वाच डॉग’ कहा गया है। (हमारे प्रतियोगी विद्यार्थियों के ‘सामान्य अध्ययन’-विषय के अन्तर्गत ये दो प्रश्न लिखित और मौखिक परीक्षाओं के समय किये (यहाँ ‘दिये’ अथवा ‘पूछे’ अशुद्ध हैं।) जा सकते हैं।)
वास्तव मे, हमारे पत्रकार/मीडियाकर्मी ‘सजग कुत्ता’ (वाच डॉग) हैं; क्योंकि ‘प्रेस’ को ‘वाच डॉग’ कहा गया है। यदि हमारे पत्रकारवृन्द/मीडियाकर्मी अपने वाहनो पर ‘सजग कुत्ता’ अथवा ‘वाच डॉग’ लिखवाकर निकलेंगे तो उनकी स्थिति ‘हास्यास्पद’ हो सकती है, इसीलिए वे ‘प्रेस’ अथवा ‘मीडिया’ लिखवाते आ रहे हैं।

‘वाच डॉग’ एक ऐसी पत्रकारिता है, जो स्वयं को ‘लोकतन्त्र का चतुर्थ स्तम्भ’ कहलाने के औचित्य को सिद्ध करती है। वह शासकीय- प्रशासकीय विसंगतियों को समाज के पटल पर निष्पक्ष ढंग से प्रस्तुत करती है, जबकि वस्तुस्थिति नितान्त विपरीत है। देश के लगभग सभी ‘वाच डॉग’ दुम हिलाने के अलावा सरकारी कुकृत्यों के सच को ‘सच’ की तरह से देखने मे समर्थ रहते हुए भी ‘असमर्थ’ दिख रहे हैं; क्योंकि शासकीय-प्रशासकीय भय का वातावरण और अघोषित आपात्काल सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है।

आज देश मे बड़े उद्योपतियों-घरानो-द्वारा जितने भी समाचारपत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित की जा रही हैं और समाचारचैनल संचालित किये जा रहे हैं, उनमे लगभग सभी ‘नम्बर दो’ के भी कृत्य करते आ रहे हैं; उनके विरुद्ध कोई वैधानिक-अवैधानिक काररवाई न हो जाये; ई० डी०, सी० बी० आइ०, आइ० टी० डी० आदिक सरकारी अनुचरों को पीछे लगाकर छापे न मरवा दिये जायें, इसे समझते हुए, ऐसे प्रेस और मीडिया-संस्थान संचालित करनेवाले लोग सत्ताधीशों के “हाँ-मे-हाँ” मिलाते आ रहे हैं; उनका गुणगान करते आ रहे हैं। स्वामी (‘स्वामियों’ अशुद्ध है।) सत्तापक्ष के स्वामी भी जानते हैं कि वे प्रेस-मीडियासंस्थानो के स्वामियों पर अपने सरकारी तन्त्रों-द्वारा उनके गोरखधन्धा का पर्दाफ़ाश करने, विज्ञापन से वंचित रखने, अघोषित सम्पत्ति का हिसाब लेने आदिक का भय का शिकंजा कस सकते हैं। इसी का दुष्परिणाम और दुष्प्रभाव है कि पत्रकारिता/मीडिया का ‘चारणी युग’ आरम्भ हो चुका है। “मरता क्या न करता”। इस प्रकार की पत्रकारीय प्रवृत्ति लोकतन्त्र के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हो रहा है। देश के मध्यम और लघु समाचार-पत्रिकाओं को ऐसे ही ग़ुलामी जीवन जीनेवाले बड़े घरानो के सरकारी समाचारपत्र-पत्रिकाओं के स्वामियों के चारणीय चरित्र खाते आ रहे हैं। ऐसी स्थिति मे, मध्यम और लघु समाचारपत्र-पत्रिकाओं के प्रेस-संघटनो को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। इसके लिए देश के समस्त मध्यम और लघु समाचारपत्र-पत्रिकाओं के स्वामियों को चाहिए कि वे क्षुद्र स्वार्थ, द्वेषादिक से परे होकर आपस मे संवाद कर, अपने प्रेस-संघटन को शक्त, समर्थ तथा प्रभावकारी बनायें, तभी वे अपना अस्तित्व बचाने मे समर्थ हो सकेंगे तथा सच्चे अर्थ मे ‘राष्ट्रीय प्रेस-दिवस (दिनांक)-आयोजन करने की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; १६ नवम्बर, २०२३ ईसवी।)