–—–०परिसंवाद-आयोजन०——
संयोजक-सूत्रधार : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
आज प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिद्वन्द्विता है, प्रतियोगिता है तथा प्रतिस्पर्द्धा भी। ‘मुद्रित माध्यम’ (समाचारपत्र-पत्रिकाएँ) भी इनसे अछूती नहीं हैं। किसी भी समाचारपत्र अथवा पत्रिका के पन्ने पलटते जाइए फिर आप समझ पाते हैं कि उसकी गुणवत्ता का प्रतिशत कितना है। भाषा, कथ्य, तथ्य, प्रस्तुति इत्यादिक की दृष्टि से समाचारपत्र-पत्रिकाओं का स्तर अत्यधिक गिर चुका है। जिन्हें अर्थशास्त्र का ‘ककहरा’ नहीं ज्ञात, वे ‘आर्थिक संवाददाता’, जिन्हें यह नहीं मालूम, ‘सी०आर०पी०सी०’ और ‘आई०पी०सी०’; ‘आरोपी’ और ‘आरोपित’; ‘अनुच्छेद’ और ‘धारा’ ‘मन्त्रिमण्डल’ और ‘मन्त्रिपरिषद्’ इत्यादिक में क्या अन्तर है, वे ‘अपराध’ और विधि संवाददाता’, ‘जिन्हें ‘साहित्य की विधा’, ‘जयन्ती’ और ‘समारोह’, ‘लिपि’ ‘भाषा’, ‘वर्ण’, ‘अक्षर’, ‘आयोजित’ और ‘सम्पादित’, ‘समीक्षा’, ‘आलोचना’, ‘समालोचना’, ‘सम्मेलन’, ‘अधिवेशन’, ‘समागम’, ‘समारोह’ ‘गोष्ठी-संगोष्ठी’, ‘कार्यशाला-कर्मशाला’ इत्यादिक का संज्ञान नहीं, वे ‘साहित्यिक-सांस्कृतिक संवाददाता, जिन्हें ‘निरीक्षण-परीक्षण’, ‘चेकिंग’, ‘संवीक्षण’, ‘स्कूल-कालेज’, ‘प्रधानाध्यापक-प्राचार्य-प्रधानाचार्य’ ‘तदर्थ’ आदिक का संबोध नहीं, वे ‘शैक्षिक संवाददाता’, जिन्हें ‘राजनय’, ‘राजनीति’ इत्यादिक का ज्ञान नहीं, वे ‘राजनीतिक संवाददाता’ बना दिये गये हैं।
कुछ योग्य और विशेषज्ञ सम्पादक और संवाददाता अवश्य हैं, जो अपनी ‘विशेषज्ञता’ के साथ कार्यरत् हैं परन्तु उससे बात नहीं बननेवाली है।
इस विषय पर आप क्या सोचते हैं? देशहित में अब स्वस्थ संवाद-प्रतिसंवाद करने की आवश्यकता है।
तो आइए! बिना किसी पूर्वग्रह के इस परिसंवाद में सक्रिय भागीदारी करते हुए, निर्भीक, किन्तु शालीन विचारों की अभिव्यक्ति करें। निस्सन्देह, नीतियों और नीयत पर प्रहार करना है, न कि व्यक्तिगत स्तर पर। आपके शब्द-शब्द में कितनी आग है; तपिश है; भूख है; समाधान और निराकरण करने के साथ ही प्रशमन करने की कितनी सामर्थ्य है, इन्हें ही रेखांकित करना इस ‘परिसंवाद-आयोजन’ का निहितार्थ और ध्येय है।
वैचारिक हस्ताक्षरों का स्वागत है :———
अनिवर्ति तिवारी- सर शासन प्रशासन एवं सम्बंधित अन्य संस्थाओ में इसी तरह की समस्या विद्यमान है लेकिन सर सबसे ज्यादा चिन्ता का विषय यह है कि इन समस्याओ को कैसे दूर किया जाए ?
डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय– सुझाव दीजिए।
अनिवर्ति तिवारी- सर यह विचार का विषय है त्वरित सुझाव कैसे दिया सकता है क्योकि इसके लिये व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता पड़ेगी
जगन्नाथ शुक्ल- गुरुदेव! उपर्युक्त तथ्य तो भाषिक दक्षता से सम्बद्ध हैं जो कि लिखित प्रकाशन के अनिवार्य एवं अपरिहार्य अवयव हैं, यदि अमुक समाचार पत्र/ पत्रिका किसी भाषा का प्रतिनिधित्त्व करती है तो यह उस भाषा का महज़ उसकी पाठक संख्या के लिहाज से व्यापारिक दृष्टि से दुरुपयोग न करें बल्कि उक्त भाषा के साहित्य/ व्याकरण/दर्शन के साथ ही साथ आत्मा के साथ खिलवाड़ न करें, मानता हूँ कि बेरोजगारी नहीं बल्कि महामारी का दौर है किन्तु बाज़ार में उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ एवं उपयुक्त मेधा का उपयोग करें।
डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय- भाषिक ही नहीं, सामाचारिक दृष्टि से भी उपयोगिता और महत्ता है। इन पर भी चिन्ता व्यक्त की गयी है।
अब ‘विशेषज्ञता’ की आवश्यकता है क्योंकि प्रतिद्वन्द्विता के स्तर पर गुणवत्ता का विशेष महत्त्व है।
शिवभूषण मिश्र- आज का प्रिण्ट मीडिया सम्पूर्ण रूप से पूँजीवाद के हाथों की कठपुतली है । इसलिए प्रिण्ट मीडिया अपने मालिक के हितों को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता । कुलदीप नैय्यर और ख़ुशवन्त सरीखे उदाहरण बनना बहुत कठिन है क्योंकि आज का पत्रकार आत्मा का कम और शरीर का ज्यादा ध्यान रखता है ।