उन्मादी भीड़ (मॉब लिचिंग) के लिए कौन उत्तरदायी ?

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय


डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय
(प्रख्यात भाषाविद्-समीक्षक)

इन दिनों ‘उन्मादी भीड़’ (मॉब लिचिंग) शब्द अपनी पूरी आक्रामकता के साथ सभी के होठों पर उत्सुकता और चिन्तापूर्वक बैठ चुका है। हमारी व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका तथा अवैध चतुर्थ स्तम्भ ‘मीडियापालिका’ पूर्णत: अक्षम दिख रही हैं। अवैध इसलिए कि ‘चतुर्थ स्तम्भ’ के रूप में हमारे संविधान में मीडिया को मान्यता नहीं मिली हुई है। केन्द्र और राज्य के सरकार-संचालक इसके लिए कठोर क़ानून लाने की बात करते आ रहे हैं; न्याय पालिका के उच्चपदस्थ अधिकारी, न्यायाधीश गणादिक नये क़ानून बनाने का विषय उठाते आ रहे हैं, जबकि हमारे नेतागण उन हत्यारों को गले लगाते आ रहे हैं; उनका फूल-माला से अभिनन्दन करते आ रहे हैं तथा मीडिया के ठीकेदार अपने प्रकाशन-प्रसारण में हिन्दू, मुसलमान, दलित आदिक की राजनीति करते हुए, वातावरण को उत्तेजित करते आ रहे हैं।
भारत-विभाजन के समय सामूहिक आक्रामकता के चलते हज़ारों की संख्या में लोग मारे गये थे; गणेशशंकर विद्यार्थी को उन्मादी भीड़ ने मार डाला था। वर्ष १९८४ के दंगे में सैकड़ों लोग की हत्या की गयी थी और विध्वंसक रुख़ अख़्तियार किये गये थे। मज़दूरी करने के लिए बाहर से आये एक व्यक्ति को ‘बच्चाचोर’ कहकर भीड़ ने मार डाला था; डायन बताकर एक निर्दोष महिला की उन्मादियों ने हत्या कर दी थी तथा पिछले २० जुलाई, २०१८ ईसवी को अलवर (राजस्थान) में एक व्यक्ति की ‘गोहत्या’ करने के नाम पर धार्मिक उन्मादी भीड़ ने हत्या कर दी थी। प्रश्न है, क़ानून ने क्या किया? वह आज तक उन आरोपितों को दण्डित नहीं कर सका है? उसके बाद से देश का ऐसा कोई राज्य नहीं, जहाँ अनियन्त्रित भीड़ ने निर्दोष और दोषी लोग की हत्या न की हो; मारा-पीटा न हो। आश्चर्य तो यह कि क़ानून के रक्षक अधिवक्ता भी आरोपितों पर प्राणघातक हमले करते आये हैं।

गोरक्षा, डायन, बच्चाचोर आदिक के नाम पर एक अलग मानसिकता का भीड़तन्त्र अकस्मात् आक्रामक होकर किसी की भी हत्या कर दे रहा है और वह व्यक्ति, जिसके पास देश की सर्वोच्च सत्ता है, यानी प्रधान मन्त्री कुछ भी करने में असहाय दिखता है। सत्तापक्ष अपनी अयोग्यता और अक्षमता को न परख, विपक्षी दलों को आरोपित करता है और विपक्षी दल भी अपनी जागरूक भूमिका-निर्वहन करने के स्थान पर, आरोप-प्रत्यारोप का एक सिलसिला शुरू कर देता है।

देश के प्रधान मन्त्री यह भूल चुके हैं कि वे भारतीय जनता पार्टी नहीं, अपितु उस देश के प्रधान मन्त्री हैं, जिसका दशकों से सम्पूर्ण विश्व में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। घटना बंगाल, कर्नाटक, त्रिपुरा, जम्मू-कश्मीर, पंजाब तथा किसी भी राज्य की हो, सभी पर समान दृष्टि स्थिर करते हुए, वहाँ की ‘उन्मादी आक्रामकता’ की स्थिति को वे नियन्त्रण कराने में अपनी सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करें। ऐसी स्थितियों में देश के गृहमन्त्री की भूमिका अति महत्त्व की हो जाती है। उन्हें ‘नॉर्थ और साऊथ ब्लॉक’ से निकलकर सभी राज्यों और केन्द्र-शासित क्षेत्रों का दौरा करना चाहिए। प्रधान मन्त्री को ‘ट्वीटबाज़ी’ से परहेज करते हुए, राजनीतिक विद्वेष से परे रहकर, राष्ट्रहित में चिन्तन करना होगा। उन्हें रोडशो, आत्मविज्ञापन, आत्मप्रदर्शन इत्यादिक व्यक्तित्वघातक हठकण्डों से दूर रहकर, हिन्दू-मुसलमान-दलित इत्यादिक कैंसर-सदृश रोगों से अलग रहकर, ‘हत्यारी मानसिकता’ की जड़ता को समाप्त कराने में अपना सक्रिय योगदान करना होगा।

कृत्रिम मन्दिर, हिन्दू, गोहत्या, दलित-राजनीति विषय से अधिक महत्त्व है, ‘मनुष्यता का पोषण करना’।
बेशक, सामूहिक हत्यारी मानसिकता गर्हित और जघन्य है। वह एक ऐसी व्याधि है, जिसके विरुद्ध समूची मानव-सभ्यता को उठ खड़ा होना है और एकजुट होकर आवाज़ बुलन्द करनी है। यह एक ऐसा संकट है, जो किसी देश अथवा जाति-विशेष का नहीं, मनुष्यमात्र को ध्वस्त कर सकता है। मनुष्य, जो विगत अनगिनत पीढ़ियों की अनवरत साधना का विकसित रूप है, उसे विकासमान रखना है और भविष्य को सौंपना है।

जानवरों की नैसर्गिक पशुता को परास्त करनेवाला महान् मानव स्वयं अपने भीतर की वृत्तिगत पशुता का शिकार हो रहा है। सामूहिक हत्यारी मानसिकता इसी विस्तार का नाम है, जिसे समूल नष्ट करने के लिए ‘मूलाग्र’ तक को पहचानना होगा। इतिहास साक्षी है कि उसे कभी, जब वर्तमान होती है तब पहचाना नहीं जा सका है। जब वह अतीत होती है, अक्सर तभी पहचानी जाती है; परन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और उसके बद्नुमा दाग़ इतिहास के पृष्ठों पर गहरे हो चुके रहते हैं। हत्यारे ‘अतीत’ से प्रेरित होकर ‘वर्तमान’ हत्यारे और ‘भविष्य’ के आधार बनते हैं तथा सामूहिक हत्यारी मनोवृत्ति परवान चढ़ती है। उसे रोकना ज़रूरी है और उसे वर्तमान में ही रोका जा सकता है; क्योंकि वर्तमान ही हमारे हाथों में होता है, जिसे हम मनचाही दिशा दे सकते हैं। हमें अपने वर्तमान की सामूहिक हत्यारी मानसिकता को, उसके मूल में प्रवेश कर, पहचानना और पकड़ना होगा तभी हम एक ‘उज्ज्वल’ भविष्य के प्रति आश्वस्त हो पायेंगे और आनेवाली पीढ़ियों के लिए ‘एक निरापद’ दुनिया दे सकेंगे।

सामूहिक आक्रामकता हिन्दू और मुसलमान के बीच हो; शिया-सुन्नी के दरम्याँ हो; सिक्खों-ग़ैरसिक्खों में हो, हत्या ‘हत्या’ होती है। भीड़ की आक्रामकता के कारण अधिकतर वही लोग मारे जाते हैं, जिनका किसी भी अपराध के साथ कोई संलग्नता नहीं रहती। सभी जमात के भोले-भाले ग़रीब लोग ही उन्मादी भीड़ के शिकार होते हैं। उन्माद को भड़कानेवाले लोग हमेशा अपनी सुरक्षा की पूर्व-व्यवस्था किये रहते हैं। ऐसे लोग कभी मरते नहीं।
गुण्डा सिर्फ़ ‘गुण्डा’ होता है। उसकी कोई जात नहीं होती— वह न सिक्ख होता है और न ही ईसाई। दरअस्ल, उसे मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर तथा गुरुद्वारों की आन्तरिक भावना से कुछ लेना-देना नहीं होता। उसका उद्देश्य सिर्फ़ ‘आतंक’ फैलाना होता है। वह इन सभी स्थानों को अपनी सुरक्षा के गढ़ों के रूप में ‘इस्तेमाल’ करता है और इन सभी के साथ भावना के स्तर पर जुड़ी भीड़ को स्वार्थ की पूर्ति के लिए ‘ईंधन’ बनाता है। मज़हबी जुनून में भड़काई गयी भीड़ ही इन गुण्डों की ताक़त बन जाती है और आपस में टकराती है। हमारी समूची सुरक्षा-व्यवस्था उस भीड़ में व्यस्त हो जाती है और उस बीच गुण्डे अपने मक़्सद पूरे कर ले जाते हैं और क़ानून टुकुर-टुकुर ताकता रह जाता है। हाल की उन सभी घटनाओं में हमने यही देखा है। देश के शीर्षस्थ न्यायालय उच्चतम न्यायालय के विधिज्ञगण को इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक विचार कर, ऐसा विधान बनाना होगा कि विवेकहीन भीड़ धार्मिक उन्माद और अन्धविश्वास की आड़ में किसी निर्दोष का अहित न कर पाये।


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