अस्पतालों में होता कालाधन्धा

विजय कुमार (इलाहाबाद)-


आज एक प्राइवेट हास्पिटल का वाकया सामने आया। इलाहाबाद के प्रतिष्ठित प्राइवेट हास्पिटल नारायण स्वरुप हास्पिटल के संचालक व नामी गिरामी सर्जन गोल्ड मेडलिस्ट डाक्टर राजीव सिंह ने लगभग तीन साल पहले एक मरीज को पेशाब संबधी समस्या के चलते मूत्र मार्ग में संक्रमण(यू.टी.आई.) व अवरोध बताकर उनका आपरेशन कर दिया। मरीज को कुछ दिन बाद कुछ दिन बाद आराम महसूस हो गया और वह मरीज चूँकि विदेश में नौकरी करता है तो वह विदेश चला गया। लेकिन कुछ महीनों बाद ही उसे पुनः परेशानी हुई तो वह किसी तरह तकलीफ सहता रहा पुनः तीन साल बाद विदेश से लौटने पर उसने डाक्टर से फिर पूरी बात बताई तो उन्होने नली की सफाई करने को कहकर पुनः उसका आपरेशन कर दिया और कुछ दिन बाद अस्पताल से छुट्टी दे दी। अभी आज ही मरीज अस्पताल से लौटा है जिसे साथ में एमीकाशिन 500 मिलीग्राम का इंजेक्शन व सेफ्ट्रीआक्जोन1000 मिलीग्राम+सलबक्टम500 मिलीग्राम का इजेक्शन सुबह शाम झोलाछाप डाक्टर से लगवाने के भरोसे के साथ दस दस की मात्रा में थमा दिया गया। एक इंजेक्शन की कीमत प्रति इंजेक्शन 105 रुपये एम.आर. पी. के अनुसार ली गई जिसकी वास्तविक बाजार कीमत मात्र 10-12 रुपये है और दूसरे इंजेक्शन की कीमत 121 रुपये प्रति इजेक्शन वसूली गई जिसकी वास्तविक बाजार कीमत 25-30 रुपये प्रति इंजेक्शन है ।

यानि लगभग 400 रुपये के इजेक्शन्स के 2250 रूपये वसूले गये यानि मरीज से अनाप रुपये लेने के बाद भी जाते समय भी उसे नहीं बख्शा गया और सिर्फ लूटने के उद्देश्य से उसे जेनरिक इंजेक्शन्स भारी मात्रा मे थमा दिए गये जबकि डाक्टर को बढ़िया क्वालिटी का एवं किफायती इजेक्शन प्रेसक्राइब करना चाहिए न कि अपने अस्पताल मे दवाखाना खोलकर जेनरिक दवाइयाँ थमाकर उन्हे लूटना चाहिए। हद तो तब हो गई जब उसे साथ में पूरी मात्रा मे डिस्पोजेबल सिरेन्ज तक नही दी गई क्योंकि उनमें एक रपया या पचास पैसा प्रति सिरेंज ही बचत होनी थी तो कआहे उसको साथ में देने की तकलीफ उठायें।

आखिर डाक्टर ने किसके भरोसे मरीज को इंजेक्शन लगवाने के लिए थमा दिए?क्या मरीज को बढ़िया क्वालिटी का और किफायती इंजेक्शन कहीं से भी खरीदने के लिए पर्चे मे नहीं लिखा जा सकता था?जब झोलाछाप किसी काम के नहीं हैं और सरकार और डिग्री होल्डर डाक्टरों के लिए नकारा ही हैं तो फिर उन्ही से मुफ्त सामाजिक सेवा करवाने की अपेक्षा क्यों की जाती है?भारी भरकम सरकारी खर्च के बावजूद सरकार हर जगह बेहतर स्वास्थ्य सेवाये क्यों नहीं उपलब्ध करवा पा रही है?क्या सरकार पूरे देश में बिना झोलाछाप डाक्टरों के सुगमता के साथ स्वास्थ्य सेवाएँ जन-जन के लिए उपलब्ध करवाने में सक्षम भी है?क्या झोलाछाप डाक्टर इन बड़े अस्पतालों मे चलने वाली दवाओं से ज्यादा गुणवत्ता वाली एवं किफायती दवाएँ मरीजो को नहीं देते हैं? क्या झोलाछाप डाक्टर इनसे ज्यादा व्यवहारिक ल सामाजिक रूख के साथ किफायती व उच्च गुणवत्ता का इलाज मरीजों को नही उपलब्ध कराते हैं?क्या झोलाछाप डाक्टरों के इलाज से होने वाली मौतों का प्रतिशत सरकारी व प्राइवेट डाक्टरों के इलाज से होने वाली मौतों के प्रतिशत से कम नहीं है? प्रतिशतता को इलाज कराए जाने वाले मरीजों की संख्या एवं इलाज करने वाले डाक्टरों की संख्या के आधार पर तय होना चाहिए।फिर हमेशा झोलाछापों के विरूद्ध ही सारी कार्यवाही क्यों?आधी रात को गाँव के किसी कोने में अचानक किसी गरीब व्यक्ति के बीमार हो जाने पर उसको स्वास्थ्य सुविधा तत्काल मुहैया कराने के लिए कौन आगे आता है उन परिस्थितियों में जब शायद उसके जेब में एक फूटी कौड़ी भी न हो?प्राइवेट अस्पतालों कआ क्या सिस्टम है सभी जानते हैं पहले एडवांस फीस या पैसा जमा होता है तब डाक्टर हाँथ लगाता है।सरकारी अस्पतालों में भी डाक्टर दवा बाहर से खरीदने के लिए पर्चा लिख देते हैं तो दवा खरीदने के लिए जेब में पैसे होना जरूरी होता है।ऐसी परिस्थितियों में सिर्फ झोलाछाप ही काम आता है जो पूरी श्रद्धा से अपने मरीज के इलाज मे लग जाता है बिना यह तक सोचे कि पैसा मिलेगा या नही क्योंकि वह गाँव कआ ही होता है उसे भावनात्मक लगाव भी होता है वह भी गरीबी मे ही जीवन काटता है तो उसे अगले व्यक्ति की समस्या का भी अहसास रहता है वह कभी इसे प्रोफेशन के तौर पर नही लेता बल्कि इसे पूजा के समान समझता है और मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह अपनी निष्ठा एवं कर्तव्य का सही इस्तेमाल करते हुए अधिकाँश मरीजो को स्वास्थ्य लाभ देने में कामयाब भी रहता है।कभी हजारो मरीजो का जीवन बचाने के बाद भी परिस्थिति या रोग की अति गभीरतावश यदि एक भी कैजुएल्टी हो जाए तो सीधे सभी उसकी अयोग्यता को ही मुद्दा बनाएँगे और भारी विरोध शुरु हो जाता है जबकि हजारो जीवन बचाने पर उसे कभी एक भी प्रशसा का शब्द किसी से नही मिलता।न तो सरकार से और न ही कभी किसी मीडिया से।