
डॉ० सुधान्शु बाजपेयी–
हिंदी और उर्दू दो नहीं एक ही भाषा थी लेकिन हिंदी को हिंदुओं की भाषा और उर्दू को मुसलमानों की भाषा इतनी बार और इतने तरीकों से बताया गया कि इतना बड़ा झूठ उस दौर का सबसे बड़ा सच बना दिया गया। हिंदी और उर्दू के बीच के विरोध को इतना बढ़ा दिया गया कि मूल रूप से एक भाषा होने के बावजूद दोनों अलग-अलग भाषाएं बन गईं। उर्दू को फारसी शब्दों से और हिंदी को संस्कृत शब्दों से इस तरह बोझिल बनाया जाने लगा कि सामान्य आदमी को न उर्दू समझ में आ सकती थी और न हिंदी।
अंततः अंग्रेजों का उद्देश्य सफल रहा। हिंदोस्तान आज़ाद भी हुआ तो दो टुकड़े होकर हिंदू बहुल हिंदुस्तान की राजभाषा हिंदी बनी और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान की राजभाषा उर्दू बनी। आज भी जो लोग हिंदी-उर्दू विवाद को बढ़ाने में लगे हैं वो अंग्रेजों की सांप्रदायिक विरासत ‘फूट डालो और राज करो’ को ही आगे बढ़ा रहे हैं।