विद्यालय के वाहनों में नियमों का नहीं होता पालन

कछौना, हरदोई। कछौना क्षेत्र में कुकुरमुत्तों की तरह खुले निजी विद्यालयों में वाहनों पर कोई भी नियम व कानून लागू नहीं हो पा रहा है। विद्यालयों के वाहनों में क्षमता व सीटों से अधिक बच्चे ढूस-ढूस के भरे जाते हैं। वही ग्रामीण क्षेत्र व कस्बों में जो दिख जो रिक्से बच्चों को लाने ले जाने के लिए लगाए गए हैं। वह रिक्शेवाले ही 5 की जगह 10-10 बच्चे भरके जा रहे हैं। जिन बच्चों को अभिभावक बड़े प्यार से तैयार कर सुबह हाथ हिला कर विदा करते हैं, वह भी नहीं देखते कि इतनी महंगी फीस देने के बाद भी उनका बच्चा सही सलामत सुरक्षा के साथ विद्यालय जा रहा है, कि नहीं। ज्यादातर लगे निजी वाहनों में वाहन स्वामी ज्यादा बचाने के चक्कर में पेट्रोल वाहन को गैस किट लगवा कर चलाते हैं, और कई वाहन स्वामी तो घरेलू गैस से वाहनों को चला रहे हैं। जिससे हमेशा वाहन में आग लगने का खतरा बना रहता है।

बच्चों की जिंदगी दांव पर लगी रहती है। जिस पर न ही विद्यालय प्रबंधन कोई आपत्ति करता है और न ही अभिभावकों को इन नौनिहालों के ऊपर आने वाले खतरे का अहसास है। वह तो बच्चों को अच्छे विद्यालय में प्रवेश दिलाकर बच्चे की पढ़ाई में लगाने की बात करके अपनी जिम्मेदारी विद्यालय प्रबंधन के ऊपर छोड़ देते हैं। विद्यालय प्रबंधन ज्यादा बचाने के चक्कर में कहीं टेंपो तो कहीं रिक्शा व मैजिक, कहीं विक्रम आदि में बिना सुरक्षा के लाने और ले जाने का इंतजाम करते हैं। वह भी वाहन बगैर पीले रंग के और बिना विद्यालय के वाहन या बच्चे की पट्टियां तक नहीं लगाते जबकि नियम यह है कि जो भी विद्यालय प्रबंधन द्वारा अनुबंधित किया जाए उसका रंग पीला होना चाहिए एवं उस पर विद्यालय का कलर कोड होना भी चाहिए। स्कूली बच्चों के पट्टियां लगी होनी चाहिए एवं विद्यालय का कलर कोड भी होना चाहिए। विद्यालय प्रबंधन व प्रशासनिक अधिकारियों की लापरवाही के चलते सैकड़ों विद्यालय वाहन घरेलू गैस से चलाए जा रहे हैं, और बेरोकटोक बच्चों को लेकर सड़कों पर दौड़ते हैं। जिस पर कभी भी आज तक अभिभावकों द्वारा कोई विरोध नहीं किया जाता है। जिम्मेदार अधिकारियों की कुंभ करणीय नींद शायद किसी बड़े हादसे के बाद ही टूटती है। ग्रामीण क्षेत्रों में हाल यह है कि एक ही वाहन में बच्चे भेड़ बकरियों की तरह ढूस-ढूसकर भरे जाते हैं। वह भी वाहन चालक लापरवाही से वाहन को तेज रफ्तार से भगाते हैं, जबकि नियमतः विद्यालय के वाहन की रफ्तार की भी सीमा तय की गई है। वहीं कोई विद्यालयों के वाहनों पर कभी भी मानकों को पूरा नहीं किया जा रहा है, और विभागीय अधिकारी भी अपने हिस्से की रकम लेकर इस तरह के वाहनों को चलने व चलाने की सहमत प्रदान किए रहते हैं। जबकि सरकार ने विद्यालयों में लगे वाहनों के लिए नियम बनाए हैं। वह नियम ताक पर रखकर विद्यालय प्रबंधन द्वारा काफी पुरानी व खटारा वाहनों को लगाया जाता है।

जबकि नियम है कि निजी वाहनों पर विद्यालय का कलर कोड होना चाहिए। प्रत्येक 3 महीने में प्रिंसिपल द्वारा वाहनों की समीक्षा की जानी चाहिए। ड्राइवर व कंडक्टर की योग्यता व मान्यता पर विचार होना चाहिए। विद्यालय वाहन का फिटनेस सर्टिफिकेट, ड्राइवर का लाइसेंस होना चाहिए। खिड़कियों में जाली व तीन रॉड के साथ चढ़ने उतरने की व्यवस्था होनी चाहिए। विद्यालय वाहन का रंग पीला विद्यालय का नाम लिखा होना चाहिए। विद्यालय वाहन में साइड मिरर व इंडिकेटर लाइट दुरुस्त होनी चाहिए। बैठने की सीटें सही व खिड़की से इतनी नीचे हो कि बच्चे के सर बाहर न निकाल सके। विद्यालय वाहन की गति सीमा भी निर्धारित होनी आवश्यक है। विद्यालय वाहन में प्राथमिक उपचार की व्यवस्था होनी चाहिए। विद्यालय वाहन का फिटनेस सर्टिफिकेट छह माह से पुराना नहीं होना चाहिए। पन्द्रह साल से पुराना वाहन विद्यालय में बच्चे लाने व ले जाने के लिए प्रयोग में नहीं लाया जा सकता है। वाहन के आगे और पीछे स्पष्ट रूप से विद्यालय वाहन लिखा होना चाहिए। यह सभी नियम शायद ही किसी विद्यालय के वाहन में प्रयोग किए जाते हो, यहां पर विद्यालय प्रबंधन द्वारा धन बचाने के चक्कर में नियमों की अनदेखी करके हजारों बच्चों के जीवन के साथ खिलवाड़ किया जाता है।

रिपोर्ट – पी०डी० गुप्ता