दुनिया में जब समाज अनेकानेक भागों में विभक्त हो गया । अल्लाह के अतिरिक्त अन्य बहुत से पूज्य हो गए । तब अल्लाह ने अपना एक पैगम्बर दुनियाँ में दीन के साथ भेजा । दीनी तालीम के लिए अपने उसी पैगम्बर मोहम्मद साहब पर एक किताब कुरआन नाज़िल की । इस किताब के अनुसार अब दुनियां में केवल एक पूज्य प्रभु अल्लाह है । सारे इन्सान उसी अल्लाह के बन्दे हैं । जो भी अल्लाह में यकींन रखता है, वह मोमिन अर्थात मुसलमान है । जो भी अल्लाह का विरोध करता है, वह क़ाफ़िर है । अल्लाह अपनी कौम से कहते हैं कि तुम सब गिरोहों और टुकड़ों में मत बंटो । लेकिन दुर्भाग्य मुसलमानों ने अपने सर्वशक्तिमान और इंसाफ़ करने वाले का कहा नहीं माना । आहिस्ता – आहिस्ता 72 फ़िरक़ों में बंट गए । अल्लाह की अवज्ञा कर फिरकाबाजी करने वाले सारे मुसलमानों ने क़ुफ़्र किया है । इस तरह फिरकों में संयोजित सभी मुसलमान क़ाफ़िर हुए । अल्लाह ने नया दीन इसीलिए तो चलाया था, क्योंकि पहले के यहूदी और ईसाई आपस में बंट गए थे ।
“जिन लोगों ने अपने धर्म के टुकड़े-टुकड़े कर दिए और स्वयं गिरोहों में बँट गए, तुम्हारा उनसे कोई संबंध नहीं । उनका मामला तो बस अल्लाह के हवाले है । फिर वह उन्हें बता देगा, जो कुछ वे किया करते थे।”—————-अल क़ुरआन (सूरह अनआम 6:159)
वहाबी विचारधारा को आतंकवाद के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हुए इस्लाम की बरेलवी विचारधारा के मोमिनों एक कांफ्रेंस कर कहा कि वो दहशतगर्दी के ख़िलाफ़ हैं। आखिर एक ही क़ुरआन को मानने वालों में ज़हीनी तौर पर इतना अन्तर कैसे आ गया ? स्वाभाविक है कि यदि मुसलमान है तो क़ुरआन और मुहम्मद साहब में ईमान को लगाने वाला ही होगा । एक ही धर्म के दो विरोधी चेहरे धर्म का अस्तित्व ही ख़त्म कर देते हैं । इस्लाम के 72 फिरकों में से असली कौन है, आज तक कोई भी जान नहीं पाया है । यदि इस्लाम का चरित्र देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि असल एक ही है और बाकी सभी दोगले (क़ाफिर / दैत्य / राक्षस / शैतान) हैं । वहाबियत को मुसलमान क्यों पोषित कर रहे हैं ? यदि वहाबी फिरका वास्तव में इस्लाम के ख़िलाफ़ काम कर रहा है, तो इस विचार धारा को भारतीयों से समर्थन क्यों ? इस्लाम संस्कृति विहीन समाज है । किताब के अन्दर से यह संस्कारों को निकालने की चेष्टा किया करता है । क़िताबों में निर्देश तो हो सकते हैं किन्तु संस्कार तो अर्जित करने पड़ते हैं । इस्लाम ने आज तक अन्य धर्मावलम्बियों के लूट – लूट कर सिर्फ धन का अर्जन ही किया है । इस तरह इस्लाम में सांस्कृतिक शून्यता के सिवा और कुछ दीखता नहीं है । अपने आप को श्रेष्ठ कहने वाला मुस्लिम समाज आज अनेक पंथों में बंट गया है । सभी पंथ एक दूसरे से ख़ुद को अलग मानते हैं ? इस्लाम के सभी अनुयायी ख़ुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन इस्लामिक क़ानून (फ़िक़ह) और इस्लामिक शरीयत के अनुसार अलग – अलग रिवाज़ मानते हैं । यह कुफ़्र नहीं तो और क्या है ?