
● आचार्य जी के कथनों-विचारों के पीछे ‘व्यक्तित्व’ की गरिमा थी।
प्राचीनता की उपेक्षा न करते हुए भी नवीनता को समादृत करने में सिद्धहस्त आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने हिन्दीपद्य और गद्य की भाषा में एकरूपता स्थापित करने के लिए ‘खड़ी बोली’ का जिस शैली में प्रचार-प्रसार किया था, उसका दृष्टान्त अन्यत्र सुलभ नहीं है। एक समर्थ आलोचक की भूमिका में उन्होंने ‘रीति’ से पृथक् रहकर उदेश्य की गम्भीरता, उपादेयता, शैली की नूतनता आदिक को प्रतिष्ठित किया था।
ऐसे साहित्यमनीषी के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन करने के उद्देश्य से उनकी जन्मतिथि ९ मई को बौद्धिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक तथा सामाजिक मंच ‘सर्जनपीठ’ के तत्त्वावधान में साहित्योत्सव के रूप में आयोजित किया गया था, जिसमें ज़िले के प्रबुद्धवर्ग की प्रभावकारी भागीदारी थी।

0 कल्याण कुमार घोष ( इण्डियन प्रेस के तत्कालीन स्वामी बाबू चिन्तामणि घोष के पौत्र और वर्तमान में इण्डियन प्रेस के निदेशक-प्रबन्धक) ने एक अनुकरणीय संस्मरण सुनाया, “आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की अप्रतिम भाषिक योग्यता से प्रभावित होकर मेरे दादा जी (बाबू चिन्तामणि) ने उन्हें प्रथम वैतनिक सम्पादक के रूप में कार्य करने के लिए आमन्त्रित किया था। मेरे दादा जी यद्यपि स्वामी थे तथापि वे आचार्य जी के सम्पादन-कर्म में कभी हस्तक्षेप नहीं करते थे। मेरे दादा जी को यदि किसी विषय पर परामर्श करना भी होता था तब वे स्वयं आचार्य जी के कक्ष में पहुँच जाते थे।”

0 हेमवतीनन्दन बहुगुणा, नैनी के पूर्व-प्राचार्य और हिन्दी-आलोचक डॉ० विभूराम मिश्र ने बताया,”हिन्दी-भाषा का मानक रूप-निर्धारण करने में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी का महत् योगदान रहा है। वे सच्चे अर्थ में ‘आचार्य’ थे, इसलिए उन्होंने चर्चित साहित्यकारों की कृतियों का परिष्कार करने में भी कोई संकोच नहीं किया था। उन्होंने हिन्दी-साहित्यकारों को ललित साहित्य के अतिरिक्त ज्ञानविज्ञान, अर्थशास्त्र, अन्तरराष्ट्रीय आदिक विषयों पर लेखन की प्रेरणा दी थी।”

0 अपर्णा श्रीवास्तव (राजस्व अधिकारी, सोराँव, प्रयागराज) की मान्यता है, ” आधुनिक हिन्दी के जनक आचार्य जी एक युगप्रवर्तक, प्रखर आलोचक तथा समयसत्य पत्रकार थे। भारतेन्दुयुगीन हिन्दीभाषा को परिष्कृत कर नवजागरण शंख-नाद करने का श्रेय पण्डित द्विवेदी जी को ही जाता है।”

0 डॉ० पूर्णिमा मालवीय (प्राचार्य : जे०पी०एस० डिग्री कॉलेज, गौहनिया, प्रयागराज) का विचार है, “बहुत कम लोग जानते हैं कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी एक कुशल बालसाहित्यकार भी थे। उन्होंने बाल और किशोर-सुलभ ज्ञान-विज्ञान की पुस्तकों का लेखन किया था।”

0 डॉ० सभापति मिश्र (वरिष्ठ साहित्यकार, हण्डिया, प्रयागराज) की विषयगत अवधारणा है, “आचार्य जी ने हिन्दीभाषा को शुद्धता प्रदान करके उसका राष्ट्रीय स्वरूप निर्धारित किया था। ‘सरस्वती’ के माध्यम से उन्होंने साहित्यकारों का एक मण्डल गठित कर हिन्दी की सच्ची सेवा की है। हिन्दीभाषा को एकरूपता प्रदान करने में उनकी सेवाएँ स्मरणीय रहेंगी।”

0 अंकिता श्रीवास्तव (राजस्व लेखपाल, हण्डिया, प्रयागराज) का मत है, ” आचार्य द्विवेदी जी आलोचक और सम्पादक के अतिरिक्त एक सुयोग्य निबन्धकार, अनुवादक तथा कवि भी थे। उन्होंने आधुनिक युग की साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना को नयी दिशा और दृष्टि प्रदान की थी।”

0 अलका (विधि-छात्रा : इलाहाबाद राज्य विश्वविद्यालय, प्रयागराज) का कथन है, “आचार्य द्विवेदी जी एक ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने नारी-सम्मान को अत्यन्त महत्त्व दिया था। उन्होंने समाज में व्याप्त नारी-निरादर को दूर करने और संकीर्ण समाज को जाग्रत करने के लिए ‘सरस्वती’ को माध्यम बनाया था।”

0 अभिनव श्रीवास्तव (व्यक्तिगत सचिव : डी०एफ०सी०सी०आइ०एल०, रेलविभाग) ने एक संस्मरण सुनाया, “उन दिनों आचार्य जी की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ नहीं थी। उन्हें जी०आइ०पी०, रेलविभाग में सेवा करने का अवसर मिला था। वे २५ वर्ष की अवस्था में एक वर्ष के लिए रेलविभाग, अजमेर में रहे। चूँकि वह नौकरी उन्हें रास नहीं आयी थी, अत: वे ‘इण्डियन मिडलैण्ड रेलवे में तारबाबू के रूप में नियुक्त हुए थे। वे बहुत स्वाभिमानी थे, फलत: अपने उच्चाधिकारी से न पटने के कारण रेलविभाग, झाँसी की २०० रुपये प्रतिमाह के वेतन पर पदप्रहार कर ‘सरस्वती’ के सेवक बन गये।”

0 संयोजक डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (भाषाविद्-समीक्षक) का मत है, “महात्मा गांधी जी वाचस्पति पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की सम्पादन कला और भाषानिष्ठा से इतने प्रभावित थे कि वे ‘सरस्वती’ पत्रिका में मुद्रित आलेखों को पढ़ना नहीं भूलते थे। गांधी जी का मानना था कि ‘सरस्वती’ के परिमार्जित शब्द एक शिक्षक की भूमिका में दिखा करते थे। वह ऐसा समय था, जब हिन्दी-साहित्य के विश्रुत रचनाकार अपनी रचनाओं को ‘सरस्वती’ में मुद्रित देखकर अपना “अहो भाग्य” मानते थे, ऐसा इसलिए कि आचार्य जी की लेखनी की भास्वरता और बुद्धि की प्रखरता की समता करने की क्षमता किसी में भी नहीं थी।”
अन्त में, संयोजक ने समस्त सहभागियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की थी।