‘सर्जनपीठ’ प्रयागराज की ओर से आयोजित ‘ऑन-लाइन राष्ट्रीय पावस कविता-कामिनी पर्व’ सम्पन्न

“ताल-तलैया उछल रहे, लहरों ने राह रचाई है”

 सच कहा गया है,"जहाँ न जाये रवि, वहाँ जाये कवि।" इसे सार्थक करता रहा, यह सांस्कृतिक आयोजन, जिसमें वर्षा की नाना अनुभूतियाँ बन-सँवर रही थीं। 'सर्जनपीठ', प्रयागराज की ओर से देश की 'सांस्कृतिक राजधानी' की उपाधि से विख्यात प्रयागराज में २९ जून को 'ऑन-लाइन राष्ट्रीय पावस कविता-कामिनी पर्व' का आयोजन किया गया, जो कि वर्षारम्भ का यह पहला कार्यक्रम था। ज्ञानदायिनी माँ शारदा की स्तुति की गयी। 

डॉ० प्रदीप चित्रांशी (हैदराबाद) ने इस दोहे से सम्पूर्ण परिवेश को पावस-मय कर दिया, “ले आया आषाढ़ जब, पावन नीर-फुहार।
अठखेली करने लगीं, नदियों की जलधार।।”

बालकृष्ण गौतम ने (सतना) प्रवाहपूर्ण रचना सुनायी,”पा रस पावस आवत झूमत स्वागत हेतु सुरूख़ खड़े,
थार धरे जनु आरति की चपला चमके जनु फूल झड़े।”
शिवशरण श्रीवास्तव (रायपुर) ने एक मनोरम शब्दचित्र प्रस्तुत किया, “ताल-तलैया उछल रहे,
लहरों ने राह रचाई है ।
उमड़, घुमड़ कर बादल बरसे,
मति उन्मुक्त बनाई है ।।”

समारोह-आयोजक आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय (प्रयागराज) ने इस रचना को सुनाकर वातावरण को सम्मोहित कर लिया, “बारिश की रागिनी; आकाश की दामिनी;
धान रोपती कामिनी,
मन्त्रमुग्ध परिवेश में
दोनों हाथों उलीचते
उत्सव बाँट रही हैं।”

घनश्याम अवस्थी (गोंडा) ने यह दोहा सुनाया, “मुदित हुई तपती धरा, घुमड़े चहुँ दिसि मेह।
देखो कैसे झूमकर, सावन बरसे नेह ।।”

डॉ० संगीता बलवन्त (ग़ाज़ीपुर) ने यह कविता पढ़ी,” रिमझिम बारिश की बूँदों की गिरें फुहारें,
आँगन, उपवन, घर में लाए ख़ुशी हमारे।।”

कुँवर तौक़ीर अहमद ख़ान (ओबरा) ने रस-परिवर्तन करते हुए सुनाया, “आज बादल मेरी आँखों से आँसू ले गए हैं,
दिन-रात ख़ूब बरसेंगे सैलाब आने तक।”

विजयलक्ष्मी ‘विभा’ (प्रयागराज) ने पढ़ा, “आई री बरसात देखो, आई री बरसात,
बादल बरसे, धरती सरसे, दुनिया हरसे रे।”

आरती जायसवाल (रायबरेली) ने सुनाया,”रिमझिम-रिमझिम, झमझम-झमझम,
बूंदों का संगीत।
तृषित धरा पर हुए समर्पित मेघ हों जैसे मीत।”

राधेश्याम शर्मा (कोरिया, छत्तीसगढ़) ने मुक्तक सुनाया,”हरे परिधान धारे मुदित छबीली हुई,
धरा-वधू घन-केश व्योरती किवाँड़ पर।”

डॉ० मधु भारद्वाज (आगरा) ने कविता सुनायी, “जब मौसम की पहली बरसात थी
मैं थी, तुम थे और अमावस की रात थी।”
स्नेहलता भारती (ग़ाज़ियाबाद) की रचना है, “चहक उठता है ये सावन, झड़ी बरसात आने पर,
हरित हो जाती है धरती, ये तन- मन भीग जाने पर।”

अन्त में, आयोजक ने समस्त कवि-कवयित्रीवृन्द के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।