संविधान विरुद्ध खड़े, लोकतन्त्र के अंग

एक–
मनहूस तारीख़ हुई, मानो गूलर-फूल।
न्यायशील दिखते कहाँ, आस रही है झूल।।
दो–
देखो! कैसे मौन हैँ, न्यायतन्त्र के लोग।
चिन्दी-चिन्दी हो रही, इज़्ज़त लगती भोग।।
तीन–
पट्टी खोली आँख की, संविधान अब हाथ।
दिखता न्याय सुदूर है, भटक गया है साथ।।
चार–
खुली आँख अब देखतीँ, बिके न्याय को पास।
मरे प्रतीक्षा हर घड़ी, ज़िन्दा रहती आस।।
पाँच–
संविधान-विरुद्ध खड़े, लोकतन्त्र के अंग।
हतप्रभ आँखेँ देखतीँ, नीयत बदले रंग।।

(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पण्डित पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २ नवम्बर, २०२४ ईसवी।)