अन्तर्यात्रा

—-आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
शुष्क पड़ी संवेदना, आहत निज सम्बन्ध।
अजब खेल है मोह का, कैसा यह अनुबन्ध?
दो–
मेरा-तेरा किस लिए, माया से अब डोल।
गठरी दाबे काँख में, द्वार हृदय का खोल।।
तीन–
छक कर अब है जी लिया, जीवन नहीं सुधार।
अधजल गगरी दिख रही, बहका है आधार।।
चार–
पाप-पुण्य का खेल है, किस पर हो विश्वास।
भौतिकता के पास रह, मरती जाती आस।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; २१ जून, २०२० ईसवी)