आवर्तन और दरार

— आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

एक–
कल तक था जो जगद्गुरु, भ्रष्ट बन गया देश।
दिखते सब बहुरुपिये, तरह-तरह के वेश।।
दो–
कुम्भकर्णी सब नींद में, नहीं किसी को होश।
बाँट रहे सब देश को, लोकतन्त्र बेहोश।।
तीन–
क़लम बिकाऊ दिख रहे, बिकते हैं हर रोज़
चाहत दारू-दाम की, नयी-नयी अब खोज।।
चार–
न्यायतन्त्र रुग्ण यहाँ, कितना यहाँ अँधेर।
एड़ी जनता घिस रही, होता बहुत अबेर।।
पाँच–
रक्त-सम्बन्ध खो रहे, अपनों का विश्वास।
ऐसे में कैसे भला, हो ग़ैरों से आस।।
(सर्वाधिकार सुरक्षित– आचार्य पं० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, इलाहाबाद; २० जून, २०२० ईसवी)