एक अभिव्यक्ति : उपहास को, परिहास मत बनने दो

डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय

हास को
इतिहास मत बनने दो,
उपहास को
परिहास मत बनने दो।
आगत-अनागत
थाली में तेल-बाती लिये
प्रतीक्षा सह रहे हैं;
बाट जोह रहे हैं, उस पल का,
जब तुम अपने होने अथवा न होने की प्रतीति का अनुभव कराओगे।
मेरे दोनों कन्धों पर
एक अपरिचित भार लाद दिया गया है,
जिसे मैं अन्यमनस्क भाव से
कभी तुम्हारी ओर ले जाता हूँ
तो कभी अपनी ओर।
माना, रात काली नागिन-सी
मेरी आँखों के सामने से
सरकती आ रही है,
जो अभीष्ट नहीं है।
शेष-अवशेष
अँगुलियों के पोरों पर
मदन-नृत्य करते हुए
मानो दूर गगन में
विविध आकार लेते विरहिणी
के अंगभार को
शिथिल करने के प्रयास में
विरह-ज्वाला को वय-वार्द्धक्य की भाँति
गति देते लक्षित हो रहे हों।
आओ!
शमन के पथ को
अनुभूतियों के बन्दनवार से आवृत करता
एक ऐसा आकार दें
जो अन्त:सलिला-सदृश
हमारे मन-प्राण को
अभिसिंचित करता रहे।

(सर्वाधिकार सुरक्षित : डॉ० पृथ्वीनाथ पाण्डेय, प्रयागराज; ७ अक्तूबर, २०१९ ईसवी)